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Showing posts from June, 2017

जीएसटी कार्यक्रम का विरोध व्यर्थ, जीएसटी पर सरकार का साथ दे

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माना यह जा रहा था कि वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी देश में राजनीतिक आम सहमति का एक आदर्श उदाहरण बनेगा। दरअसल, इसको लेकर जो कानून बने, सामान्य कानूनों से लेकर संविधान संशोधन तक, उनमें विपक्ष की भूमिका सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले की रही। करों की दरों समेत जीएसटी के सभी प्रावधानों को जिस जीएसटी परिषद ने मंजूरी दी है, उसमें भी प्राय: सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी है। मगर अब जबकि जीएसटी लागू होने में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं, तब उसका विरोध होने लगा है। गौरतलब है कि यह कर-प्रणाली कल एक जुलाई से जम्मू कश्मीर के अलावा पूरे देश में एक साथ लागू हो जाएगी। इसके लिए आज रात संसद के केंद्रीय कक्ष में भव्य समारोह होना है, जिसमें सरकार ने विपक्ष के नेताओं समेत देश के दूसरे क्षेत्रों की हस्तियों को भी आमंत्रित किया है। इस समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी शामिल होंगे। बहरहाल, यह सब तो जब होगा, सो होगा ही, पर जीएसटी के विरोध में गुरुवार को जो स्वर सुनाई दिया है, उसने आम सहमति पर पानी फेर दिया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो जीएसटी के लिए होने जा रहे कार्यक्रम का

अमरनाथ यात्रा पर इस बार कुछ ज्यादा ही खतरा,सतर्कता जरूरी

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यदि खुफिया एजेंसियां यह कह रही हैं कि अमरनाथ यात्रा पर इस बार कुछ ज्यादा ही खतरा है तो उनकी यह आशंका गलत नहीं मानी जा सकती। अमरनाथ की पवित्र गुफा दक्षिण कश्मीर में है। जम्मू से अमरनाथ के दो ही रास्ते हैं। या तो बालटाल होकर वहां तक पहुंचा जा सकता है या फिर पहलगाम होकर। पहलगाम वह जगह है, जो अगर बहुत अशांत नहीं है तो बहुत शांत भी नहीं है। अशांत तो बालटाल भी नहीं है, पर श्रीनगर एवं अनंतनाग जैसे इलाके इसके आसपास हैं, जो सबसे ज्यादा अशांत हैं। अत: यह मानना सही नहीं होगा कि आतंकवादी और अलगाववादी 40 दिन तक चलने वाली पवित्र अमरनाथ यात्रा में कोई बाधा पैदा करने की कुचेष्टा नहीं करेंगे। अलगाववादी तो इस यात्रा के खिलाफ यूं भी रहते हैं। 2013 में सैयद अलीशाह गिलानी ने इसका खुलकर विरोध किया था। तब उनके दबाव में आकर अमरनाथ यात्रियों की संख्या को कम करना पड़ा था। इसके लिए पंजीकरण चार लाख से ज्यादा यात्रियों ने कराया था, जबकि बाबा अमरनाथ के दर्शनों का लाभ मात्र ढाई-पौने तीन लाख श्रद्धालु ही ले पाए थे। अलगाववादी इस वार्षिक यात्रा का विरोध इसलिए करते हैं कि उन्हें यह लगता है कि इसके लिए कश्मीर म

बेहतर राष्ट्रपति कार्यकाल में सिद्ध हुए, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी

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राष्ट्रपति चुनाव को लेकर बहुत सारी बातें हो रही हैं, जातीय कार्ड से लेकर कौन हारेगा एवं कौन जीतेगा तक कीं। राष्ट्रपति पद के दोनों प्रत्याशी प्रचार भी कर रहे हैं। वे सांसदों से मिल रहे हैं और राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों का सामना कर रहे हैं। यह सब चुनाव तक चलता रहेगा व इसी पर चर्चा भी होती रहेगी। इसके बीच कुछ चर्चा वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की भी हो, ताकि पता चले कि उनका कार्यकाल कैसा रहा है। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में कितना योगदान दिया, कितना नहीं। बहरहाल, जुलाई में ही राष्ट्रपति भवन से विदा लेने वाले प्रणब मुखर्जी को संविधान विशेषज्ञ और उसमें आस्था रखने वाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है एवं विगत पांच वर्षो में देश के राष्ट्रपति होने के नाते उन्होंने उसका संरक्षण भी किया है। भारत के संविधान और कांग्रेस के संविधान से उनका परिचय अद्भुत है। प्रणबदा वैसे व्यक्ति हैं, जिनसे संविधान के किसी भी प्रावधान या अस्पष्ट क्षेत्रों के बारे में स्पष्ट जानकारी के लिए संपर्क किया जा सकता है। उनकी विद्वता और उनके ज्ञान का कोई सानी नहीं है। भारत जब से गणतंत्र बना, तब

दुनिया की ताकतवर महाशक्ति घेरे में, अमेरिकी धरती से उसी पर निशाना

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अमेरिका चाहे कितना भी लोकतांत्रिक क्यों न हो, लेकिन हम सामान्य अमेरिकी नागरिकों को छोड़ दें, तो वह अपनी धरती से किसी विदेशी नेता को अपनी आलोचना करने का मौका शायद कभी नहीं देता। हां, न्यूयॉर्क का संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय अपवाद हो सकता है। पर नरेंद्र मोदी ने जिस तरह वाशिंगटन में भारतीयों को संबोधित करते हुए अमेरिका पर भी सवाल उठाया है, उससे वैश्विक राजनीति में भारत और भारतीयता की धमक का ही परिचय मिलता है। हालांकि, उन्होंने अमेरिका को सीधे निशाने पर नहीं लिया, लेकिन चीन के बहाने दुनिया की सबसे ताकतवर महाशक्ति को घेरे में जरूर ले लिया। उन्होंने चीन की ओर इशारा करते हुए कहा कि भारत वैश्विक नियमों का पालन करता है, क्योंकि हमारी यही परंपरा है। मोदी ने कहा कि भारत वैश्विक नियमों का उल्लंघन करके अपने लक्ष्यों को पूरा करने पर भरोसा नहीं करता है। यह कहकर उन्होंने हिंद महासागर में चीन की बढ़ती दादागीरी की ओर जहां दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है, वहीं उन्होंने जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए पेरिस सम्मेलन से पीछे हटने के ट्रंप के फैसले पर भी सवाल उठाया है। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है क

यात्रा अब खत्म, शंकर सिंह बाघेला की घर-वापसी संभव

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लगता है कि गुजरात के नेता शंकर सिंह बाघेला की कांग्रेस के साथ चली आ रही 11 साल पुरानी यात्रा अब खत्म होने जा रही है। कहा जा रहा है कि उन्होंने अपनी मौजूदा अध्यक्ष सोनिया गांधी को बता दिया है कि कांग्रेस के प्रति उनकी वचनबद्धता का वक्त खत्म होने वाला है। वैसे, राहुल गांधी की 30 जून को प्रस्तावित गुजरात यात्रा का लोगों को इंतजार है। वे बाघेला से भी मिलेंगे, पर माना यह जा रहा है कि राहुल गांधी से मुलाकात के बाद बाघेला पार्टी छोड़ सकते हैं। कारण, वे कांग्रेस में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। गुजरात के पुराने कांग्रेसी नेता बाघेला के खिलाफ हैं। केशुभाई पटेल को 1995 में मुख्य मंत्री बनाने से नाराज बाघेला ने दो वर्ष बाद भाजपा छोड़ दी थी। 1996 के आम चुनावों में गोधरा सीट से बाघेला की हार हुई थी। इसके लिए उन्होंने भितरघात को जिम्मेदार माना था। इसका कांग्रेस ने फायदा उठाया और भाजपा से उन्हें अलग कर उसे कमजोर करने की कोशिश की। तब बाघेला की अगुवाई में भाजपा को तोड़कर कांग्रेस ने कुछ दिन अपनी सरकार तो चला ली, लेकिन इसके बाद हुए चुनाव में भाजपा को ही जीत मिली, जबकि तब कांग्रेस की सत्ता

सामाजिक न्याय अब राजनीतिक विचार नहीं,न्याय चेतना का प्रश्न

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संसदीय व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य का अर्थ सत्ता के लिए बहुमत बनाने वाले वोटरों को संतुष्ट करने के इर्द-गिर्द केंद्रित होकर रह जाता है। देश की राजनीतिक प्रक्रिया में एक बुनियादी बदलाव तब आया था, जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने संविधान में उल्लेखित सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़े वर्गो को सरकारी नौकरियों में विशेष अवसर यानी आरक्षण देने का फैसला किया था। संसदीय राजनीति में यह फैसला सामाजिक न्याय के नाम से जाना गया। यह वह दौर था, जब पूरी संसदीय राजनीति में हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज के सबसे निचले हिस्से को अपना वोट बनाकर स्वयं से जोड़ने का प्रयास शुरु हुआ। इस प्रयास को ही सोशल इंजीनियरिंग के नाम से जाना गया। हिंदुत्ववादी संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और उसकी संसदीय पार्टी भाजपा ने भी इस सोशल इंजीनियरिंग की अनिवार्यता महसूस की। यह विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा शुरू की गई सामाजिक न्याय की राजनीति का ही असर था कि सभी को सोशल इंजीनियरिंग की जरूरत महसूस हुई। इसके कारण सामाजिक न्याय ने सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल पर संसदीय राजनीति को प्रभावित तो किया, मगर वि

डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या में साजिश की बू

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श्रीनगर की जामा मस्जिद के बाहर ड्यूटी पर तैनात डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि इससे जम्मू कश्मीर के विस्फोटक होते हालातों का ही पता चलता है। घटना गुरुवार की रात 12 बजे के बाद तब हुई, जब मस्जिद में शब-ए-कद्र के लिए श्रद्धालु आ-जा रहे थे और तभी एक भीड़ ने उन पर हमला कर दिया। यह भी कहा जा रहा है कि जब अयूब पंडित भीड़ से घिर गए, तो उन्होंने अपने बचाव में रिवॉल्वर से तीन गोलियां भी चलाईं। लेकिन अंतत: उन्हें इतना पीटा गया कि उनकी मौत हो गई। खबरों के अनुसार भीड़ ने उन पर इसलिए हमला किया कि वे फोटो खींच रहे थे, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उन्हें भीड़ ने नहीं, बल्कि सात-आठ लोगों ने पीटा था। सबसे महत्वपूर्ण है, जम्मू कश्मीर के पुलिस प्रमुख शेष पॉल वैद का बयान, जिसके अनुसार मोहम्मद अयूब पंडित पर अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक ने हमला कराया। अंग्रेजी भाषा के एक समाचार चैनल ने खुलकर दावा किया कि वैद को यह संदेह है कि अयूब पंडित पर हमला मीरवाइज ने ही कराया है। बहरहाल, यह तो जांच का विषय है कि हमला किसने कराया और किसने नहीं। लेकिन जब अयूब पंडित मस्ज

जीएसटी एक जुलाई से ही लागू,जीएसटी पर दृढ़ है मोदी सरकार

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जब व्यापारिक संगठनों ने विरोध किया था, औद्योगिक संगठनों ने भी कहा था कि व्यापारियों की चिंताओं का निराकरण किया जाए, तब लगा था कि सरकार जीएसटी को शायद एक जुलाई से लागू नहीं करेगी। पहले वह व्यापारियों की चिंता दूर करेगी, फिर जीएसटी की दिशा में कोई कदम उठाएगी। इसकी वजह यह थी कि माना जाता है कि भाजपा का सबसे ज्यादा जनाधार व्यापारियों में ही है। लेकिन मंगलवार को केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ कर दिया है कि जीएसटी एक जुलाई से ही लागू होगा और वह भी 30 जून की रात संसद के केंद्रीय कक्ष में एक कार्यक्रम आयोजित करके, जिसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत पक्ष-विपक्ष के कई नेतागण मौजूद रहेंगे। यानी, सरकार न सिर्फ जीएसटी लागू कर रही है, बल्कि वह यह भी सुनिश्चित कर रही है कि अगर यह कर-प्रणाली कड़वे अनुभव देने लगे तो विपक्ष की पार्टियां उसे कठघरे में खड़ा न कर पाएं। वैसे भी जीएसटी पर एक राजनीतिक आम सहमति तो पहले से ही है। तभी तो इसके लिए संसद में संविधान संशोधन हो पाया था। फिर, इसे लागू करने के तौर-तरीके बनाने के लिए गठित जीएसटी-परिषद में भी देश के सभी राज्यों और केंद्र श

योग संजीवनी है, आध्यात्मिक उन्नति योग को दिनचर्या में शामिल करें

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तपस्विभ्योधिको योगी, ज्ञानिभ्योपि मतोधिक: कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवाजरुन।। श्रीमद्भगवद्गीता-कथन है कि तपस्वियों, ज्ञानियों और सकाम-कर्मियों से भी श्रेष्ठ है योगी। इसी महाग्रंथ का एक अन्य श्लोक है:- तरूमाद्योगाय युज्यस्व योग:, योग: कर्मसुकौशलम्। इसी के उत्तरार्ध-‘योग: कर्मसुकौशलम्’ को ‘आईएएस’ ने अपने आषर्वाक्य के रूप में ग्रहण किया है-कर्म में कुशलता ही योग है। 21 सौ साल पुरानी ईसाइयत और 14 सौ साल पुराने धर्म इस्लाम की उत्पत्ति से भी सहस्राब्दियों पूर्व विश्व के प्राचीनतम आर्ष-चिंतन ऋग्वेद में योग का उल्लेख मिलता है। अत: इसके सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक महत्व को देखते हुए सहज ही समझा जा सकता है कि यह तो विश्वदृष्टि का आध्यात्म है, जो सभी को स्वीकार्य भी है। सामान्यत: महर्षि पतंजलि को योग का सूत्रधार माना जाता है। तमाम दावों-प्रतिदावों के बीच महर्षि पतंजलि का जन्म स्थान मध्यप्रदेश में ही माना जाता है। वैदिक साहित्य के विख्यात शोधार्थी मैक्समुलर के एक वाक्य ‘वैयाकरण गोनर्दीय’ के आधार पर डॉ. प्रभुदयालु अग्निहोत्री ने अपनी तथ्यपुष्ट पुस्तक ‘पतंजलिकालीन भारत’ में

आत्महत्याओं पर रोक एक सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण की जरूरत

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हम अखबारों में प्राय: आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं। आत्महत्या दरअसल जीवन से हार जाने का नाम है। यह एक तरह की कायरता है। जो इंसान जिंदगी से लड़ नहीं पाता है, वह खुदकुशी कर लेता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर वर्ष लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े यह भी साफ करते हैं कि आबादी के प्रतिशत के लिहाज से गुयाना, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के हालात कुछ ज्यादा ही चिंताजनक हैं। पर नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि हमारे यहां आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ रही है। भारत में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में हर एक लाख लोगों पर 2.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। हमारे यहां आत्महत्या करने वाले 37.8 फीसदी लोग 30 साल से भी कम उम्र के हैं। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्

सामाजिक मीडिया या अन्य वैचारिक मंचों पर बढ़ते कर, कमजोर पड़ते अधिकार

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सामाजिक मीडिया या अन्य वैचारिक मंचों पर हो रही बहसों में प्राय: जनापेक्षा व राज्य के प्रयासों के बीच एक बड़ा गैप देखने को मिलता है, जिसे लेकर आम नागरिक बहुत से दबावों एवं संशयों के साथ-साथ कुछ हद तक प्रतिक्रियात्मक मनोदशा के साथ दिखता है। एक आम नागरिक की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार होती है- एक वेतन से कितने और कितनी बार टैक्स। आम जरूरत की चीजें खरीदें तो टैक्स, गाड़ी खरीदें तो टैक्स, सड़क पर चलें तो फिर से टैक्स, घर खरीदें तो टैक्स, बाहर खाना खाएं तो टैक्स, राशन खरीदें तो टैक्स, दवाई खरीदें तो टैक्स, कहीं फीस, कहीं बिल, कहीं ब्याज, कहीं सेवा, न जाने कितनी तरह के टैक्स..इसके बाद थोड़ी -बहुत सेविंग कर ली तो फिर से टैक्स। आशय यह है कि सारी उम्र काम करने के बाद कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं, पेंशन नहीं, स्वास्थ्य सेवा पाने का बुनियादी अधिकार नहीं, बच्चों के लिए अच्छे सार्वजनिक स्कूल नहीं, अच्छा पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं, सड़कें खराब, हवा खराब, पानी खराब, सब्जियां जहरीलीं, हास्पिटल महंगे, आपदाओं से निपटने की कोई अच्छी व्यवस्था नहीं.. आदि। फिर, आखिर टैक्स का पैसा गया कहां? इसी क्रम में उत्तर

देश के समाज को अपने हिसाब से रचती तकनीक

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भारत जैसे देश के छोटे-बड़े शहरों में लोगों को जो बहुराष्ट्रीय-राष्ट्रीय कंपनियां किराए पर गाड़ियां मुहैया करा रही हैं, उनमें उबर और ओला की कंपनियां मशहूर हैं। मध्यम वर्ग के नागरिकों को अपने ब्रांड की गाड़ियां किराए पर लेने के लिए ये कंपनियां तरह-तरह से आकर्षित कर रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां लोगों में आकर्षण पैदा करने के लिए पूरे संसार में एक ही तरीका अपनाती हैं कि वे उनको मुफ्तखोरी के लिए प्रेरित करती हैं। उबर और ओला भी किसी सवारी को पहली बार मुफ्त में यात्रा कराती हैं। इसके अलावा कई तरह की छूटें, सुविधाएं देने का सिलसिला भी जारी रखती हैं ये। इस तरह कंपनियों का लोगों के साथ सीधा रिश्ता बन जाता है। इसी तरह से विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक संबंधों का अब एक सामाजिक ढांचा विकसित हो रहा है, जिससे हमारा पुराना ढांचा कमजोर पड़ रहा है। सो, भारत जैसे देशों में इस तरह के जो नए संबंध बन रहे हैं, उनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। जो कंपनियां लोगों को किराए पर गड़ियां मुहैया करा रही हैं, उनमें ड्राइवर, कंपनी एवं सवारी के अलावा एक नया पात्र और जुड़ा है, जो कि तकनीक की शक्ल में है, जिसे हम ‘जीप

क्या मानसून इस बार कमजोर रहने वाला है? यह चेतावनी है, न कि रिपोर्ट

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तो क्या मानसून इस बार कमजोर रहने वाला है? यूं भारतीय मौसम विभाग द्वारा जो रिपोर्ट जारी की गई है, वह मानसून के पिछले 50 वर्षो के अध्ययन पर आधारित है और उसका सारांश यह है कि इस अवधि में हमारे देश में मानसून की बारिश में धीरे-धीरे कमी आती चली जा रही है। रिपोर्ट बता रही है कि जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में छह से साढ़े छह हजार मीटर की ऊंचाई पर होते हैं। 50 वर्ष पहले यह बादल घने होते थे और मोटे भी, पर अब साल-दर-साल इनकी मोटाई कम होती चली जा रही है और कमी इनकी सघनता में भी आ रही है। यह अध्ययन गलत नहीं है। महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘मेघूदत’ वैसे तो प्रेम-काव्य है। इसके दो खंड हैं-पूर्वमेघ और उत्तरमेघ, जो संस्कृत में लिखे गए हैं और जिनमें सांसारिक प्रेम का अद्भुत वर्णन है, मगर इनमें अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कालिदास ने जिन प्रतीकों का सहारा लिया है, वे मेघ यानी बादल और बारिश से जुड़े हुए हैं। जिनका लब्बोलुआब यह है कि धरती पर जितने घने जंगल होते हैं, आसमान में उतने ही घने और काले बादल। कालिदास वैज्ञानिक नहीं, संत थे, पर उनकी बात का खंडन आज के बड़े से बड़े

बेरोजगारी ही बड़ी समस्या मोदी स्वयं इन समस्याओं के समाधान की पहल कर रहे हैं

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यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उन वादों को पूरा करने की है, जो उसने अपने घोषणा-पत्र में किए थे। इनमें दो वादे खास थे। एक-किसानों को उनकी लागत से अधिक मूल्य प्रदान करना एवं कृषि को मुनाफे का कारोबार बनाना। दो-बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन करना। ये दोनों ही मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें एक दिन में नहीं सुलझाया जा सकता, बल्कि ये दोनों ही काम समय लेंगे। गंभीर समस्या का समाधान कोई सरकार जल्दी नहीं कर सकती। फिर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इन समस्याओं के समाधान की पहल कर रहे हैं। इसीलिए तो वे देश में रोजगार की स्थिति की समीक्षा भी करने जा रहे हैं, आगामी रविवार को ही। पर विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यही है कि सरकार इस मुद्दे पर पूरी तरह से विफल रही है। सरकार भी अपने पक्ष में तर्क तो देती है, लेकिन वह कोई ठोस व स्पष्ट आंकड़ा बताने में असमर्थ ही है। संगठित क्षेत्र के रोजगारों का तो आंकड़ा दिया भी जा सकता है, मगर असंगठित क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। यह पेंच इसे और भी जटिल बना देता है। इन्हीं सब जटिलताओं से उबरने

निर्वाचन आयोग ने राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी

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निर्वाचन आयोग ने बुधवार को राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी है। चुनाव कार्यक्रम वही है, जिसके बारे में चुनाव आयोग देश को पहले ही बता चुका है। यानी, मतदान 17 जुलाई को होगा, तो नतीजे 20 जुलाई को आएंगे, जबकि अधिसूचना जारी होते ही अब नामांकन की प्रक्रिया तो प्रारंभ हो ही गई है। इसी के अनुरूप राजनीतिक दल भी सक्रिय हो चुके हैं। विपक्ष की कोशिश यह है कि वह संयुक्त उम्मीदवार उतारे, जो ऐसा हो कि सत्तापक्ष उसका समर्थन करने के लिए बाध्य हो जाए। गौरतलब है कि वर्ष-2002 के राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे बढ़ाकर ऐसा दांव मारा था कि उनसे असहमति रखने वाली विपक्ष की राजनीतिक पार्टियां तो हैरान हो ही गई थीं, तत्कालीन सत्तापक्ष यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) भी मुलायम के दांव की कोई काट नहीं खोज पाया था। उसके बाद डॉ. कलाम निर्विरोध राष्ट्रपति बने और उन्होंने इस पद की जिम्मेदारी जिस गरिमा के साथ निभाई, वह ऐतिहासिक है। विपक्ष इस बार फिर 2002 दोहराना चाहता है और इसके लिए तमाम दलों के बीच बैठकें हो ही रही हैं। लेकिन सत्त

बालश्रम रोकथाम,यूं खत्म नहीं होगा यह कलंक

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बालश्रम रोकथाम अधिनियम-2016 को लागू करने के लिए नियमावलि जारी कर दी गई है। कोई भी सभ्य व लोकतांत्रिक समाज अपने बच्चों को मजदूरी करने की इजाजत नहीं दे सकता। बच्चों को तो खेलना-कूदना और पढ़ना चाहिए, ताकि वे बड़े होकर अच्छे नागरिक बन सकें। लेकिन हमने बच्चों को मजदूरी से बचाने के लिए जो कानून बनाया है, वह कारगर होगा, इसमें संदेह है। बालश्रम पर रोक के लिए जो भी कानून देश में रहे हैं, उन्हीं जैसा हश्र इस नए कानून का भी हो सकता है। इस कानून में तीन समस्याएं सबसे ज्यादा गंभीर हैं। एक-किशोर न्याय अधिनियम में किशोर की उम्र को बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया है, जबकि इस कानून में यह उम्र 14 वर्ष ही रखी गई है। मतलब, 14 वर्ष से ज्यादा की उम्र के बच्चे मजदूरी कर सकते हैं। वैसे तो यह गलत नहीं है। मगर एक देश में आयुवर्ग का निर्धारण अलग-अलग क्यों होना चाहिए? दो-जिन बच्चों को बालश्रम से बाहर किया जाएगा, उनका भविष्य कैसे उज्ज्वल बनेगा, इस पर कानून मौन है। बच्चों को श्रम से बाहर करना ठीक है, लेकिन सिर्फ इसी वजह से वे पढ़ने-लिखने लगेंगे, यह मानना गलत है, जबकि यह कानून तो कुछ ऐसा ही मानकर चल रहा है कि बच्

चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर यह मांग की, अधिकार दे संसद

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चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर यह मांग की है कि उसे भी अपनी अवमानना पर रोक का वैसा ही अधिकार मिलना चाहिए, जैसा न्यायपालिका के पास है और उसकी यह मांग सही भी है। वैसे भी चुनाव के दौरान होने वाले तमाम विवादों को रोकने के लिए निर्वाचन आयोग को ताकतवर बनाने की मांग लंबे अरसे से उठती रही है। चुनाव सुधारों के लिए जितनी भी समितियां बनीं, उन सभी की सिफारिशों में यह बात आई कि हमारा चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, मगर उसके पास अधिकार नहीं हैं। अत: उसे कुछ न्यायिक अधिकार दिए ही जाने चाहिए। कम से कम उसके पास इतना अधिकार तो हो ही कि यदि कोई चुनावी उम्मीदवार अपने हलफनामे में गलत जानकारी देता है, चुनाव में दंद-फंद करने-कराने के आरोपों की जद में आता है तो आयोग उसे फौरन अयोग्य घोषित कर सके। पर यह अधिकार उसे दिया नहीं गया है। चुनाव आयोग में केवल शिकायत की जा सकती है और वह जांच कराने के बाद कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है, लेकिन इस प्रक्रिया में मतदान हो चुका होता है और फिर नतीजे हासिल करने के लिए आरोपी उम्मीदवार अदालत में चला जाता है। फिर, प्राय: निचली अदालतों के फैसले पर ही परिणाम आ ज

अब बदली दिखेगी स्टेशनों की सूरत, सूची मेंयूपी के दो रेलवे स्टेशन भी शामिल

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कुछ दिनों पहले जब रेलवे स्टेशनों पर स्वच्छता सर्वे की रिपोर्ट आई थी, तब देश के कई स्टेशनों की बदहाली सामने आ गई थी। इसमें मध्यप्रदेश के भी कई रेलवे स्टेशनों की बदतर हालत की तस्वीर दिखी थी। इस लिहाज से केंद्र सरकार ने देश के कई रेलवे स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया है, जो बिलकुल सही है। वैसे इस फैसले का स्वच्छता सर्वे से कोई लेना-देना नहीं है, स्टेशनों को निजी हाथों में देने की रूपरेखा काफी दिनों से तैयार की जा रही थी। अब इस योजना को सिर्फ मूर्तरूप दिया जा रहा है। फिर भी इस फैसले को स्वच्छता सर्वे से ही जोड़कर देखें, तो मान लेना चाहिए कि यात्रियों के अच्छे दिन आने वाले हैं। इस फैसले के कई अर्थ सामने आएंगे। यात्रा के दौरान स्टेशनों पर फैली गंदगी व साफ पानी की समस्या के साथ ही अराजक तत्वों के जमावड़े से निजात मिल जाएगी। संक्षेप में सरकार के फैसले को देखें, तो देश के 23 रेलवे स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया गया है। इस सूची में राजस्थान का उदयपुर व यूपी के दो रेलवे स्टेशन भी शामिल हैं-कानपुर सेंट्रल और इलाहाबाद जंक्शन। 28 जून को ऑनलाइन नीलामी होनी