बेटियों के प्रति संकीर्ण सोच से बाहर आएं



कितना दुर्भाग्य है कि एक ओर हम ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के नारे लगाते हैं और दूसरी ओर लड़कों की चाह में प्राचीन काल से लड़कियों को जन्म के समय या जन्म से पहले मारते आ रहे हैं। यदि लड़की अपने सौभाग्य से बच भी जाती है, तो हम जीवन भर उससे भेदभाव के तरीके ढूंढ लेते हैं। हालांकि, धार्मिक विचार नारी को देवी का दर्जा देते हैं, पर हमारी सोच अब भी उसे शोषण करने की वस्तु से आगे नहीं देख पाई है। हमने दोहरे मानकों के आधार पर एक ऐसा समाज बुन दिया है, जहां विचार हमारे कार्यो से अलग-थलग ही बैठते हैं। आज भी हमारे विचारों में पितृसत्तात्मक सोच अपना घर बनाए हुए है, जो आधुनिकता के नए-नए दौर में नई-नई गति से फलीभूत हो रही है।
इसका त्वरित उदाहरण है, गर्भ में लिंग की जांच। हम बेटे की चाह में कुछ भी करने राजी रहते हैं। कभी बाबाओं-ओझाओं की शरण में जाकर तंत्र-मंत्र, तो कभी झाड़-फूंक करवा कर कुदरत को चुनौती देते रहते हैं। तो कभी तकनीक का फायदा उठाकर गर्भ में पल रहे भ्रूण का लिंग परीक्षण कराने से भी बाज नहीं आते। गर्भ में भ्रूण के लिंग की जांच को लेकर कड़े कानून के बावजूद बेटों के दीवाने दंपतियों ने नया और आसान रास्ता खोज निकाला है। वे भ्रूण के लिंग की जांच के लिए विदेश तक जाने लगे हैं। दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के पास 234 शिकायतें आई हैं। ये शिकायतें केवल चार माह जनवरी-2017 से 5 मई 2017 के दौरान मिलीं, जिनमें 34 लोगों को नोटिस दिया गया। 123 को निजी रूप से चिकित्सा अधिकारी के समक्ष पेश होने की हिदायत भी दी गई है। 77 के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज किया गया है। फिर भी लोग बाकायदा एजेंटों के जरिए थाइलैंड, सिंगापुर और दुबई जैसे देशों में जाकर भ्रूण की जांच करा रहे हैं। आधिकारिक अनुमान है कि एनसीआर के चार-पांच हजार दंपति लिंग जांच कराने या कन्या भ्रूण हत्या के लिए सालाना विदेश की यात्रएं कर रहे है। जाहिर है, देश के अंदर सच्चाई और भी भयावह होगी। यह सब तब हो रहा है जब लिंगानुपात राष्ट्रीय चिंता का विषय बना हुआ है। यदि गौर करें, तो आंकड़ों के अनुसार 0-6 वर्ष के बच्चों के बीच पिछले 50 वर्षो में लिंगानुपात प्रति हजार बच्चों में वर्ष-1961 में 976 से गिरकर 2011 में 918 हो गया, जबकि भारतीय कानून के मुताबिक, गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम-1994 के तहत गर्भधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के लिए लिंग परीक्षण करना या कराना गुनाह है। भ्रूण परीक्षण के लिए सहयोग देना व विज्ञापन करना भी कानूनी अपराध है। इसके तहत तीन से पांच साल तक की जेल व 10 हजार से एक लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। जबर्दस्ती गर्भपात कराने पर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। धारा-313 के तहत गर्भवती महिला की मर्जी के बिना गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है। धारा-314 के तहत गर्भपात करने के मकसद से किए गए कार्यो से अगर महिला की मौत हो जाती है, तो दस साल की कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। साथ ही आईपीसी की धारा-315 के तहत शिशु को जीवित पैदा होने से रोकने या जन्म के बाद उसकी मृत्यु मकसद से किया गया कार्य अपराध होता है, ऐसा करने वाले को दस साल की सजा या जुर्माना दोनों हो सकता है। बेटियों की फिक्र को लेकर सरकारों के भी दोहरे चेहरों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक ओर खुद सरकारें प्राथमिकता से ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ और अन्य कई योजनाएं चला रही हैं, तो वहीं दूसरी ओर लड़कियों की शिक्षा और उनके विकास पर नजर रखने वाली एजेंसियों की रिपोर्ट पर गंभीर भी नहीं हंै। बीते दिनों यूनिसेफ की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें बताया गया था कि सुनियोजित लिंगभेद के कारण भारत की जनसंख्या से करीब पांच करोड़ लड़कियां और महिलाएं गायब हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी बीते दिनों अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में प्रत्येक दिन औसतन दो हजार कन्या भ्रूण का गर्भपात होता है। वैसे तो यह बीते वर्षो की रिपोर्ट है, परंतु हालत में सुधार अब भी चिंताजनक है, क्योंकि भ्रूण की जांच और गर्भपात करने वालों में पढ़े-लिखे और तथाकथित सभ्य समाज के लोग ही शामिल है, जो देश में प्रतिबंध होने के बावजूद विदेशों के अस्पतालों का पैकेज लेते हैं और गर्भ में कन्या भ्रूण होने पर उसे वहीं गिरवा आते हैं। गौरतलब है कि पढ़े-लिखे समझदार होते है। उनमें एक अनपढ़ से ज्यादा चीजें समझने की क्षमता होती है। पर क्या हम अपनी नस्लों को यही शिक्षा दे रहे है? लड़कियों के जन्म पर अपशगुन सा माहौल आज भी बना लिया जाता है। खुद लड़कियों को अपशगुन समझा जाता है। यदि पढ़ने-लिखने के बावजूद हमारी मानसिकता में कोई फर्क नहीं पड़ा, तो बेशक धिक्कार है ऐसी पढ़ाई पर जो लड़का और लड़की में भेद करना सिखाए।
इस स्थिति के लिए परंपरावादी व दकियानूसी सामाजिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि ही जिम्मेदार है। कई जगह तो लड़कियों के परिजन ही शिक्षा के बाद आजादी छीनकर घर बैठा लेते है, जिससे उनके विचारों में रत्तीभर भी विकास नहीं हो पाता। लड़कियों को लेकर संकीर्ण विचारों में सामाजिक असुरक्षा के चलते भी तब्दीली नहीं आ पा रही है। साथ ही कुछ पढ़े-लिखे दंपतियों का मानना है कि प्रत्येक मां-बाप अपनी नजर से पहले समाज देखते हैं, उसका माहौल समझते हैं और शासन-प्रशासन की भूमिका पर भी नजर रखते है, क्योंकि कोई भी मां-बाप न तो दिल्ली जैसी नृशंस घटना सह सकता है और न ही रोहतक सी दरिंदगी। बहरहाल, सबसे पहले समाज की रूढ़िवादी मानसिकता और लड़कियों के प्रति संकीर्ण सोच को खत्म करना होगा। सरकारों को दोहरे मापदंडों से परहेज करते हुए त्वरित कदम उठाने होंगे। साथ ही ऐसा कोई कानून बनाना होगा, जिससे कोई भी व्यक्ति अपनी गर्भवती पत्नी को प्रसव पूर्व विदेश न ले जा पाए।

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