दहेज कुप्रथा को अब खत्म करना ही होगा


पिछले दिनों महाराष्ट्र के लातूर से एक असहनीय, पीड़ादायक और समाज को झकझोर देने वाली खबर अखबारों में छपी। यह वही लातूर है, जहां पानी का संकट भयावह होता है। इसी लातूर में पिछले दिनों एक 20 वर्षीय युवती ने आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि वह अपने पिता को कर्ज से बचाना चाहती थी। यह कर्ज लड़की के पिता कृषि के लिए नहीं, बल्कि उसकी शादी के लिए लेना चाह रहे थे। पिता शादी का खर्च वहन कर पाने की स्थिति में नहीं था। यह घटना समाज को आईना दिखाने के लिए काफी है। आज दहेज जैसी कुप्रथा को हम अपना सामाजिक बड़प्पन और फर्ज मान चुके हैं। दहेज कुप्रथा के दानव ने अब तक जाने कितनी बेटियों की बलि ली है, लेकिन देश के हर हिस्से में दहेज की कुरीति जस की तस बनी है। हालांकि, दहेज प्रथा को रोकने के लिए कड़े कानून हैं, मगर वैवाहिक समारोहों में होने वाला लेन-देन आज भी जारी है। लातूर की घटना से तो ऐसा ही प्रतीत होता है। 21वीं सदी वह कालावधि है, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों का सामाजिक उत्थान में अहम योगदान है। कई मौकों पर देश के भीतर सामाजिक कुरीतियों व समाज विरोधी पुरातनपंथी जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए बेताबी दिखती है, फिर सामाजिक बुराई की जड़ चाहे शराब हो, मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक हो अथवा फिर अन्न की बर्बादी का मुद्दा हो। मगर दहेज और शादी-विवाह के मौकों पर होने वाले अनाप-शनाप खर्च पर हम आज भी जागरूक नहीं हो पाए हैं। इस अवसरों पर समाज अपनी पुरातन परंपरा को ही ढोता नजर आता है। अब दहेज कुप्रथा को जड़ से खत्म करने का वक्त आ गया है। आज की युवा पीढ़ी ही इसे खत्म कर सकती है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें शिक्षा और अशिक्षा का कोई योगदान नहीं दिखता। यह नहीं कहा जा सकता कि अशिक्षा के चलते दहेज का चलन बढ़ रहा है। और तो और, जो जितना पढ़ा है, उसे दहेज भी उतना ही मिल रहा है। हाल ही में बिहार में दहेज को लेकर रेट कार्ड सार्वजनिक हुआ है। इसमें कितनी सच्चई है, यह हम नहीं बता सकते, मगर रेट कार्ड में जो राशि तय की गई है, वह कहीं से भी सभ्य समाज की दुहाई नहीं देती। इस कार्ड में अगर कोई लड़का आईएएस है, तो उसकी कीमत मुंह मांगी होगी। बैंक के पीओ को 30 लाख और आईएएस के लिए आठ से दस करोड़ रुपए तक मिलने की बात कही गई है। यह स्थिति किसी एक राज्य की नहीं है। इस सापेक्ष में लातूर की घटना को देखें, तो पता चलेगा कि दहेज का दानव अपना पेट किस कदर बड़ा कर चुका है। लातूर जिले की 21 वर्षीय लड़की शीतल व्यंकट व्याल ने अपने पिता को कर्ज से बचाने के लिए अगर जान दी है, तो यह पूरे समाज के मुंह पर धब्बा है। यह आत्महत्या लड़की ने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए नहीं की, बल्कि समाज द्वारा बनाई गईं ओछी परंपराओं के चलते की। इस घटना के बाद समाज अपनी नाकामियों से मुंह नहीं मोड़ सकता और न ही उस लड़की और न ही उसके पिता को दोष दे सकता है? कहते हैं कि हर आत्महत्या के पीछे एक हत्यारा जरूर होता है और इस मामले या ऐसे ही न जाने कितने मामलों में समाज ही हत्यारे की भूमिका में है। ऐसा भी नहीं है कि दहेज जैसी कुप्रथा को लेकर समाज जागरूक नहीं है। कई मौकों पर उसने सजगता भी दिखाई है। मगर व्यापकता का अभाव है।
लातूर में जान देने वाली युवती ने सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘मेरे माता-पिता अत्यंत गरीब हैं और शादी के लिए पैसे का प्रबंध करने में अक्षम हैं। मैं अपने पिता को आर्थिक बोझ से बचाने के लिए जान दे रही हूं। इसके साथ ही मैं अपने मराठा-कुनबी समुदाय में दहेज प्रथा का अंत कर रही हूं। मेरी दो बहनों की शादी अत्यंत साधारण तरीके से हुई। मेरी शादी के लिए पिताजी हर तरह का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि महाजनों या बैंकों से कोई कर्ज नहीं मिला, इसलिए दो वर्षो से मेरी शादी रुकी रही। इसलिए अपने पिता को बोझ मुक्त करने और मराठा समुदाय में देवान-घेवान यानी दहेज प्रथा को खत्म करने के लिए मैं अपनी जान दे रही हूं।’ यह सुसाइड नोट किसी में भी चेतना जागृत करने के लिए काफी है। इस सुसाइड नोट में दो बातें हैं-पहली गरीबी और दूसरी पैसों के चक्कर में दो वर्ष से शादी रुकी थी। क्या यह समाज का दायित्व नहीं बनता था कि उस परिवार की पीड़ा को समझता और समस्या का हल निकालता? मगर दहेज का ऐसा बुखार हम सभी पर चढ़ा है कि हमें शीतल व्यंकट व्याल के परिवार से कोई वास्ता ही नहीं रहा।
अफसोसजनक यह भी है कि बीते कुछ बरसों में बेटियों के आत्मनिर्भर और शिक्षित होने के बावजूद यह समस्या कम नहीं हुई है। सच तो यह है कि बुनियादी रूप से समाज और परिवार की मानसिकता में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। संपन्नता बढ़ी, तो शादियों में दिखावा भी बढ़ गया। यही वजह है कि दहेज प्रथा आज समाज की सबसे बुरी कुरीतियों में से एक है, जिसका निराकरण समाज और बेटियों के हित में बेहद जरूरी है। आंकड़े बताते हैं कि दहेज के नाम पर रोज औसतन 23 हत्याएं होती हैं, जबकि दहेज लाने के लिए महिलाओं को प्रताड़ित करने की घटनाएं इससे कई गुना ज्यादा हैं। पारिवारिक मामला होने चलते अधिकतर घटनाओं की रिपोर्ट तक नहीं की जाती। वर्ष-2011 में दहेज के नाम पर आठ हजार 618, वर्ष-2012 में आठ हजार 233, वर्ष-2013 में आठ हजार 83 और वर्ष-2014 में आठ हजार 455 महिलाओं का जीवन दहेज के दानव ने छीन लिया। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के मुताबिक, देश में हर 93 मिनट पर महिला को आग के हवाले कर दिया जाता है। हाल ही में बिहार सरकार ने दहेज के खिलाफ अभियान शुरू करने का फैसला किया है। बिहार की गिनती दहेज मांगने वाले राज्यों में सबसे पहले होती है। इस लिहाज से बिहार की तरह ही पूरे देश में इस कुप्रथा के खिलाफ एक व्यापक जन अभियान शुरू करने की जरूरत है।

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