सरकारी आवासों का मोह ठीक नहीं



सूचना के अधिकार के तहत खुलासा हुआ है कि अकेले दिल्ली में ही केंद्रीय कर्मचारियों के लिए आवंटित 675 सरकारी आवासों पर गैरकानूनी कब्जे बने हुए हैं। यह खबर इस लिहाज से चिंतित करने वाली है, क्योंकि कई ऐसे कर्मचारी हैं, जिनके पास रहने को घर नहीं है। उन्हें किराए के मकान में गुजारा करना पड़ रहा है। पुलिस के हजारों जवानों के लिए आवास एक बड़ी समस्या है। उन्हें दिन भर की ड्यूटी के बाद ठीक से आराम तक मयस्सर नहीं हो पाता है। सरकारी आवासों पर कब्जे का मामला आज का नहीं है। कई वर्षो से इस समस्या पर केंद्र सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक आदेश दे चुका है, मगर अब तक किसी ने भी सरकारी सुख-सुविधाओं को छोड़ने का मन नहीं बनाया है। ऐसे लोगों में मंत्री-नेता से लेकर सरकारी और रिटायर्ड अफसर तक हैं।
सरकारी आवासों पर कब्जा करना अपना धर्म मान चुके लोगों पर सख्ती करते हुए केंद्र सरकार ने इसी माह एक कानून को मंजूरी दी है, जिसमें सरकारी आवासों से अनधिकृत कब्जा हटाने की प्रक्रिया को सरल तथा तेज बनाने और दोषियों पर भारी जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया है। कानून में संशोधन के बाद सरकारी आवासों से अवैध कब्जों को तेजी से खाली कराया जा सकेगा और सरकारी आवासों का इंतजार करने वालों का नंबर जल्दी आएगा। इससे सरकारी आवासों की उपलब्धता भी बढ़ सकेगी। इससे पहले आवासों से अनधिकृत कब्जे को हटाने की प्रक्रिया बड़ी लंबी थी और काफी समय लगता था। कानून में संशोधन कर इस प्रक्रिया को सरल बनाया जाएगा तथा अवैध कब्जे को जल्द खाली कराया जाएगा। कानून के दायरे में सभी कर्मचारी, अधिकारी, सांसद और मंत्री भी आएंगे। कानून का पालन न करने वाले पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
हालांकि, आरटीआई के तहत शहरी विकास मंत्रलय से मिली यह खबर चिंतित करने वाली है कि दिल्ली में केंद्रीय कर्मचारियों के लिए आवंटित 675 सरकारी आवासों पर गैरकानूनी कब्जा है। जाहिर है, अगर आवंटित मकानों पर गैर कानूनी कब्जा है, तो फिर जिनके लिए उसका आवंटन हुआ, उनको मकान नहीं मिल पाया होगा। यह स्थिति किसी कानून के राज का उदाहरण नहीं हो सकती है। नियम बहुत ही सामान्य है। अगर कोई सेवानिवृत्त हो गया या स्थानांतरण हो गया, तो वह एक समय सीमा में मकान स्वयं खाली कर दे। यदि किसी अधिकारी अथवा कर्मचारी की मृत्यु हो गई, तब भी एक समय सीमा में उनके परिजनों को सरकारी मकान छोड़ देना चाहिए। मगर दोनों ही परिस्थितियों में ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है।
वैसे, यह हालात पूरे देश के है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है? क्यों सरकारी एजेंसियां ऐसे लोगों से मकान खाली नहीं करवा पातीं? इसके पीछे कब्जा किए व्यक्ति का प्रभाव ही मुख्य कारक नजर आता है। यदि कड़ाई से कानूनी एजेंसियां काम करें, तो मकान से किसी को भी बाहर किया जा सकता है। इनमें कुछ के साथ मजबूरी हो सकती है, लेकिन ज्यादातर मामले प्रकारांतर से दादागीरी ही प्रतीत होते हैं। कब्जा किए गए मकानों को भी किसी को आवंटित कर दिया जाता है, पर वह उसमें प्रवेश नहीं कर पाता है। इस स्थिति का अंत होना चाहिए। स्थिति सरकारी आवासों तक सीमित हो, ऐसा कतई नहीं है। कई संगठनों ने तो सरकारी संपत्तियों पर भी कब्जा कर रखा है। सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही राज्य संपत्ति विभाग द्वारा 89 संघों, संस्थाओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी व्यक्तियों को आवंटित सरकारी आवासों में से 27 पर पूर्व आवंटियों का अनधिकृत कब्जा है।
सरकारी आवासों पर कब्जा किए जाने की जो स्थिति है, उससे निपटने के लिए ही केंद्र सरकार ने कानून में संशोधन किया है। अगर लोग पहले से जागरूक होते तो शायद सरकार को सख्ती की जरूरत ही न पड़ती। अब उम्मीद है कि लोगों की मानसिकता बदलेगी।

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