किसान आंदोलन और इन आंदोलनों में, दुनिया सिद्धांतों से नहीं चलती



किसान आंदोलन और इन आंदोलनों पर राजनीति के इस दौर में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की ओर से आया यह बयान गौरतलब है कि अगर किसानों के कर्ज माफ किए गए तो इससे देश में महंगाई बढ़ेगी और इसका अर्थव्यवस्था पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। सैद्धांतिक तौर पर यह बयान गलत भी नहीं है। उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने जब अपने चुनावी वादे के अनुसार किसानों की कर्ज माफी का फैसला किया था, तब हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक एसबीआई की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य ने भी वैसा ही कुछ कहा था, जैसा अब आरबीआई ने कहा है और उनकी बात भी सैद्धांतिक रूप से सही थी। तथ्य यह भी है कि बीते 15-20 वर्षो में देश के कई राज्यों में कई बार किसानों के कर्ज माफ किए गए। उत्तरप्रदेश में तो जब भी सरकार बदलती है, तब किसानों के कर्ज अकसर माफ कर दिए जाते हैं। देश में लगभग सभी राज्यों में कभी न कभी यह काम होता रहा है। वर्ष-2009 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन केंद्र सरकार ने देश के सभी किसानों का कर्जा लगभग पूरा ही माफ कर दिया था।

ऐसे में यह सवाल बिलकुल सही है कि कर्ज माफी से किसानों की सेहत पर फर्क क्या पड़ता है? कर्ज माफी के बावजूद न तो किसानों की आत्महत्याओं के मामलों में कोई उल्लेखनीय कमी आई और न ही उनकी आर्थिक बेहतरी भी होती दिखी। तब वह दवाई दी ही क्यों जाए, जो असर नहीं करती? उससे मरीज की सेहत सुधरती नहीं है, लेकिन जो दवा देता है, उसकी सेहत अलग से बिगड़ जाती है। इस स्थिति में कर्ज माफी को सैद्धांतिक तौर पर सही नहीं माना जा सकता। लेकिन यह दुनिया सिर्फ सिद्धांतों से ही नहीं चलती, उसे कुछ व्यवहारिक तकाजे भी पूरे करने पड़ते हैं। कर्ज माफी से भले ही किसानों को स्थाई राहत नहीं मिलती है, लेकिन उन्हें अस्थाई राहत तो मिलती ही है। जिस किसान की फसल खराब हो गई हो और वसूली वाले उसे तंग कर रहे हों, यदि उसका कर्जा माफ कर दिया जाए तो कौन कह सकता है कि उसे राहत नहीं मिलेगी। जो किसान सिर्फ कर्ज के कारण खुदकुशी करने के लिए मजबूर होता होगा, कर्ज माफी निश्चित ही उसे दूसरा जीवन दे सकती है।
इस व्यवहारिक तकाजे को ध्यान में रखे बिना कर्ज माफी का न तो आंखें बंद करके विरोध किया जा सकता है और न ही समर्थन। हां, कर्ज माफी किसानों की समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। इसके लिए जिस चीज पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए, उसकी चर्चा कम ही होती है। किसानों से यह गलती होती है कि उनकी जो उपज एक वर्ष महंगी बिक जाती है, दूसरे वर्ष वे उसे ही ज्यादा बोते हैं, इस उम्मीद में कि वह फिर महंगी बिकेगी। पर दूसरे वर्ष वह कौड़ियों के भाव बिकती है और किसान कंगाल हो जाते हैं। उन्हें यह बताने की फुर्सत न सरकारों के पास है, न उनके संगठनों के पास कि उन्हें कब, क्या व कितना बोना चाहिए। सिर्फ यही व्यवस्था हो जाए, तो किसानों की कई समस्याएं सुलझ जाएंगी। तब न उन्हें कर्ज माफी की मांग करनी पड़ेगी, न किसी का उपदेश सुनना पड़ेगा।

Comments

Popular posts from this blog

झंडे की क्षेत्रीय अस्मिता और अखंडता

देश में जलाशयों की स्थिति चिंतनीय, सरकार पानी की बर्बादी रोकने की दिशा में कानून बना रही है

नेपाल PM शेर बहादुर देउबा का भारत आना रिश्तों में नए दौर की शुरुआत