स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लूस्टार की 33वीं बरसी पर, छोटी-मोटी बात बड़ा न बनाएं



यदि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लूस्टार की 33वीं बरसी पर मंगलवार को सचमुच ही खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे हैं, तब भी इसमें चिंतित होने जैसा कुछ नहीं है। जितना बड़ा सच यह है कि अब से 33 वर्ष पहले देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए ऑपरेशन ब्लूस्टार जैसा कठोर कदम उठाना जरूरी हो गया था, उतना ही बड़ा सच यह भी है कि पंजाब में एक छोटा सा वर्ग अब भी ऐसा है, जिसे इस ऑपरेशन के बाद बनी स्थितियां उद्वेलित कर देती हैं। इसमें चिंता की बात इसलिए नहीं है कि यह वर्ग बहुत छोटा सा है। वैसे, पंजाब में जब आतंकवाद था, तब भी वहां के सभी नागरिक आतंकवादी या उनके समर्थक नहीं थे। सच तो यह है कि आतंकी मुट्ठीभर ही थे, तभी तो उनका सफाया हो सका था। यदि उनकी तादाद ज्यादा होती तो उनका सफाया भी कठिन ही होता। बहरहाल, हमारी निश्चिंतता का दूसरा आधार यह होना चाहिए कि पंजाब के सभी आतंकी संगठन अब खत्म हो गए हैं। अगर वे जीवित हैं भी तो मृतप्राय हैं। आतंक के दौर में पंजाब के आतंकवादियों को पाकिस्तान का भी समर्थन मिलता था, पर अब उसके पास दूसरे आतंकवादी हैं, जो उसके ज्यादा खास हैं।

दरअसल, ये वे आतंकवादी संगठन हैं, जिन्हें पाकिस्तान धार्मिक आधार पर अपना मानता है। ये गिरोह भी उसे धार्मिक आधार पर ही अपना मानते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तान में इस प्रकार के 68 संगठन सक्रिय हैं। इनमें से कुछ ईरान को परेशान करते हैं, कुछ भारत को, तो कुछ अफगानिस्तान को। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो इस्लामिक स्टेट, बोकोहरम और तालिबान जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों के साथ मिलकर ‘काम’ करते हैं। पाकिस्तान इन संगठनों का पालन-पोषण करेगा या पंजाब के आतंकी संगठनों को फिर से खड़ा करेगा? जाहिर सी बात है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पास आतंकवादी संगठनों का पालन-पोषण करने, दुनिया में आतंकवाद फैलाने का इतना ‘काम’ है कि पंजाब की तरफ ध्यान देने का उसके पास समय ही नहीं है। फिर, सबसे ज्यादा भरोसा हमें अपने लोगों पर करना चाहिए, जिन्होंने पंजाब के आतंकवाद का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा भुगता था।
अलबत्ता, खालिस्तान के समर्थन में हुई नारेबाजी जिस उद्वेलन का नतीजा हो सकती है, हमें अनदेखी उसकी भी नहीं करनी चाहिए। क्या हम अपने आपसे यह प्रश्न पूछने के लिए तैयार हैं कि 1984 के दंगा पीड़ितों को न्याय आखिर नहीं मिला, तो क्यों? उन्हें न्याय दिलाने की बातें खूब हुईं, मुआवजे भी बांटे गए, उन पर राजनीति भी कम नहीं हुई, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर यह कहने का साहस भारत का एक भी संवेदनशील नागरिक नहीं जुटा सकता कि दंगा पीड़ितों को न्याय मिल गया है। यह हमारी व्यवस्था की विफलता है। इसलिए पीड़ित समुदाय के कुछ लोगों का थोड़ा-बहुत उद्वेलन, उनका थोड़ा-बहुत गुस्सा नजरअंदाज करने लायक है। इसमें वह भी शामिल है, जो मंगलवार को स्वर्ण मंदिर में हुआ बताया जाता है। यदि वहां नारेबाजी हुई है तो उसे तूल देने से बचा ही जाए।

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