डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या में साजिश की बू



श्रीनगर की जामा मस्जिद के बाहर ड्यूटी पर तैनात डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि इससे जम्मू कश्मीर के विस्फोटक होते हालातों का ही पता चलता है। घटना गुरुवार की रात 12 बजे के बाद तब हुई, जब मस्जिद में शब-ए-कद्र के लिए श्रद्धालु आ-जा रहे थे और तभी एक भीड़ ने उन पर हमला कर दिया। यह भी कहा जा रहा है कि जब अयूब पंडित भीड़ से घिर गए, तो उन्होंने अपने बचाव में रिवॉल्वर से तीन गोलियां भी चलाईं। लेकिन अंतत: उन्हें इतना पीटा गया कि उनकी मौत हो गई। खबरों के अनुसार भीड़ ने उन पर इसलिए हमला किया कि वे फोटो खींच रहे थे, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उन्हें भीड़ ने नहीं, बल्कि सात-आठ लोगों ने पीटा था। सबसे महत्वपूर्ण है, जम्मू कश्मीर के पुलिस प्रमुख शेष पॉल वैद का बयान, जिसके अनुसार मोहम्मद अयूब पंडित पर अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक ने हमला कराया। अंग्रेजी भाषा के एक समाचार चैनल ने खुलकर दावा किया कि वैद को यह संदेह है कि अयूब पंडित पर हमला मीरवाइज ने ही कराया है।
बहरहाल, यह तो जांच का विषय है कि हमला किसने कराया और किसने नहीं। लेकिन जब अयूब पंडित मस्जिद के सामने पुलिस की वर्दी में नहीं, बल्कि साधारण कपड़े पहनकर ड्यूटी कर रहे थे, तो यह बात तो खैर किसी को भी हजम नहीं हो सकती कि उन पर सिर्फ फोटो खींचने के कारण हमला हुआ है। तब तो और भी नहीं, जब यह तथ्य भी सामने आ जाता है कि मस्जिद के नजारों को केवल डीएसपी ही नहीं, बल्कि कई लोग अपने-अपने मोबाइलों में कैद कर रहे थे। यदि हमला फोटो खींचने के कारण होता तो सभी पर होता, अकेले डीएसपी पर नहीं। जाहिर है कि उन पर हुआ हमला किसी साजिश का हिस्सा है और यह साजिश अलगाववादियों ने ही की होगी। दरअसल, हाल ही में कुख्यात आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का एक वीडियो सामने आया था, जिसमें जम्मू कश्मीर पुलिस के मुस्लिम अधिकारी-कर्मचारियों से कहा गया था कि वे आतंकवादियों का साथ दें, न कि सुरक्षा बलों का।
इसके बाद पुलिस में दहशत फैलाने के लिए उस पर हमला भी हुआ था। यह हमला अनंतनाग जिले के अच्छबल में हुआ था, जिसमें एक अफसर समेत छह पुलिसकर्मी मारे गए थे। फिर भी जम्मू कश्मीर की पुलिस अपने कर्तव्यपथ पर अडिग है। अत: उसे डराने के लिए ही डीएसपी अयूब पंडित की हत्या कराई गई है। महबूबा सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जांच कराएं कि डीएसपी हत्याकांड में अलगाववादियों की भूमिका कितनी है। अगर उनके प्रति नरमी बरती गई तो कश्मीर 1990 के दशक में जा पहुंचेगा। उस समय आतंकवाद अलगाववादियों के कंधे पर सवार होकर ही आया था और फिर उसने जो जख्म दिए, घाटी उनसे अब भी नहीं उबरी। हालांकि, महबूबा मुफ्ती गुस्से में तो हैं। लेकिन यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि अलगाववादियों के प्रति उनका रुख नरम रहता है। कहीं यह नरमी घाटी को एक बार फिर नर्क न बना दे।

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