बेरोजगारी ही बड़ी समस्या मोदी स्वयं इन समस्याओं के समाधान की पहल कर रहे हैं



यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उन वादों को पूरा करने की है, जो उसने अपने घोषणा-पत्र में किए थे। इनमें दो वादे खास थे। एक-किसानों को उनकी लागत से अधिक मूल्य प्रदान करना एवं कृषि को मुनाफे का कारोबार बनाना। दो-बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन करना। ये दोनों ही मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें एक दिन में नहीं सुलझाया जा सकता, बल्कि ये दोनों ही काम समय लेंगे। गंभीर समस्या का समाधान कोई सरकार जल्दी नहीं कर सकती।

फिर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इन समस्याओं के समाधान की पहल कर रहे हैं। इसीलिए तो वे देश में रोजगार की स्थिति की समीक्षा भी करने जा रहे हैं, आगामी रविवार को ही। पर विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यही है कि सरकार इस मुद्दे पर पूरी तरह से विफल रही है। सरकार भी अपने पक्ष में तर्क तो देती है, लेकिन वह कोई ठोस व स्पष्ट आंकड़ा बताने में असमर्थ ही है। संगठित क्षेत्र के रोजगारों का तो आंकड़ा दिया भी जा सकता है, मगर असंगठित क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। यह पेंच इसे और भी जटिल बना देता है। इन्हीं सब जटिलताओं से उबरने और रोजगार को लेकर एक स्पष्टता लाने का जिम्मा इस बार स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया है।
रविवार को वे एक उच्च स्तरीय बैठक करके यह जानकारी लेंगे कि क्या वास्तव में देश आशा के अनुरूप रोजगार पैदा नहीं कर पा रहा है और साथ ही वे इस बात की भी पड़ताल करेंगे कि रोजगार के संदर्भ में आंकड़े किस प्रकार जुटाए जा रहे हैं। वस्तुत: सरकार बार-बार इस बात को नकारती आई है कि रोजगार के अवसर घटे हैं। वह यह भी कहती है कि अभी जिस प्रकार से ये आंकड़े जुटाए जा रहे हैं, वे रोजगार की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। देश में रोजगार सृजन और विश्वसनीय डाटा संग्रहण के लिए बनी टास्क फोर्स समिति, जिसकी अध्यक्षता अरविंद पनगढ़िया कर रहे हैं, उसका भी मानना है कि बदलते परिदृश्य में भारत को रोजगार के संबंध में नए प्रकार के आंकड़ों की जरूरत है।
उन्हें लगता है कि अभी सही आंकड़े नहीं हैं। अत: लग रहा है कि रोजगार सृजित ही नहीं हो रहे हैं। वे यह भी सुझा रहे हैं कि लेबर ब्यूरो के अलावा ईपीएफओ और इसी प्रकार के अन्य संगठनों के माध्यम से भी आंकड़े जुटाए जाएं, तब ही सही तस्वीर दिखेगी। अब जब तक नए आंकड़े आ नहीं जाते, यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि भारत रोजगार के मामले में काफी पिछड़ रहा है और अगर नए आंकड़े आ भी जाते हैं, तब भी ऐसा कुछ नहीं होने वाला है कि आवश्यकता से अधिक रोजगार के अवसर आ जाएंगे।
मूल बात यह है कि भारत सरकार को इस बात को बहुत गंभीरता से लेना होगा कि कैसे रोजगार को बढ़ाया जाए, क्योंकि अगर इतनी विशाल युवा जनसंख्या वाला देश यदि सही वक्त पर रोजगार पैदा नहीं कर पाता है तो उसके आगे बढ़ने की तमाम संभावनाओं पर वहीं विराम लग जाता है। श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में 2011 के पहले की तुलना में रोजगार सृजन में करीब 25 प्रतिशत की कमी आई है व अभी 2.5 लाख रोजगार ही प्रतिवर्ष सृजित हो रहे हैं। कई सरकारी पद भी कम किए जा रहे हैं।
हालांकि, यहां हमें ध्यान रखना होगा कि ये संगठित क्षेत्र के आंकड़े हैं, जिस कारण इन्हें पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता। यही पक्ष सरकार का भी है कि आधे-अधूरे आंकड़ों के आधार पर रोजगार की पूरी तस्वीर साफ नहीं हो सकती। उसका मानना है कि मुद्रा बैंक जैसी परियोजना से रोजगारों में वृद्धि हुई है। अब अगर आंकड़ों के इतर बात करें तो भारत को रोजगार के संदर्भ में संरचनात्मक सुधार करना होगा, तब ही हम बेरोजगारी की समस्या से सही तरीके से निपट सकेंगे, वरना तो स्थिति जटिल ही होगी।
इस संबंध में कृषि सुधार पहली जरूरत हैं। आज भी हमारा आधे से भी अधिक श्रम बल कृषि तथा उससे संबद्ध अन्य उद्योगों में लगा है। जब तक यह कारोबार लाभकारी नहीं होगा, किसी भी प्रकार की रोजगार संवृद्धि की बात बेमानी होगी। कृषि सुधार पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। इस लेख में इतना ही कहना है कि इसे लाभकारी पेशा बनाया जाए। साथ ही घरेलू बाजार को भी मजबूत बनाना होगा, ताकि अधिक से अधिक रोजगार सृजन हो सके। नीति आयोग का भी यही कहना है कि श्रम आधारित उद्योग, यथा-खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा उद्योग, टैक्सटाइल आदि को बढ़ावा देना होगा, ताकि बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन हो सके, पर यदि श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट के हवाले से कहें तो घरेलू उपभोक्ताओं से जुड़ी औद्योगिक इकाइयों में मंदी है। इसलिए नीति आयोग का इस दिशा में प्रयास करना सुखद ही कहा जाएगा, क्योंकि विनिर्माण क्षेत्र का पर्याप्त विकास करके ही संगठित क्षेत्र में व्यापक रोजगार के अवसर सृजित किए जा सकते हैं।
हालांकि, ऑटोमेशन व आर्टिफिशिल इंटेलीजेंस के विकास के कारण रोजगार प्रभावित हुआ है, पर भारत पर इसका बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था अभी तकनीकी रूप से इतनी उन्नत नहीं है कि मशीन मानव संसाधन को विस्थापित कर दे। हालांकि, यह एक विचार का बिंदु तो है ही। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विनिर्माण क्षेत्र में विकास के लिए आवश्यक है कि गैर-आर्थिक कारक, मसलन-राजनीतिक स्थिरता, लचीले श्रम कानून, आकर्षक कर नीति इत्यादि हों, ताकि निवेशक प्रोत्साहित हों। साथ ही इससे स्टार्ट अप को भी बढ़ावा मिले।
दूसरी ओर, कौशल विकास भी रोजगार सृजन का एक महत्वपूर्ण अंग है। अच्छी बात यह है कि सरकार इस दिशा में प्रयासरत है। वह निवेश के दृष्टिकोण से उचित माहौल बनाना चाहती है। यूं नोटबंदी के कारण अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। मगर यह आने वाला समय बताएगा कि इसका क्या प्रभाव हुआ। तभी, सेवा क्षेत्र पर ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें रोजगारों की स्थिति को सबसे बेहतर माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि यहां कार्य की सुविधाएं बेहतर हैं, तो वहीं इसमें वेतन का अनुपात भी अच्छा है। इससे आर्थिक प्रवाह बहुत अच्छी तरह से चलता रहता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात वह है, जो कि भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन ने कही है कि रोजगार सृजन के लिए आर्थिक विकास दर को आठ से 10 फीसदी करना होगा, क्योंकि बिना आर्थिक गतिशीलता के रोजगार पैदा करना असंभव है। स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब कृषि और विनिर्माण क्षेत्र बुरे परिणाम दे रहे हैं। सो, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जब प्रधानमंत्री स्वयं मैदान में आ रहे हैं, तो वे देश की सबसे गंभीर समस्या बेरोजगारी के समाधान के लिए क्या-क्या योजनाएं बनाते हैं? इस प्रश्न का जवाब भी तभी मिलेगा कि सरकार सरकारी विभागों में खाली पड़े हजारों पदों को भरने की कोई नीति बनाना भी चाहती है या नहीं?

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