निर्वाचन आयोग ने राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी



निर्वाचन आयोग ने बुधवार को राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी है। चुनाव कार्यक्रम वही है, जिसके बारे में चुनाव आयोग देश को पहले ही बता चुका है। यानी, मतदान 17 जुलाई को होगा, तो नतीजे 20 जुलाई को आएंगे, जबकि अधिसूचना जारी होते ही अब नामांकन की प्रक्रिया तो प्रारंभ हो ही गई है। इसी के अनुरूप राजनीतिक दल भी सक्रिय हो चुके हैं। विपक्ष की कोशिश यह है कि वह संयुक्त उम्मीदवार उतारे, जो ऐसा हो कि सत्तापक्ष उसका समर्थन करने के लिए बाध्य हो जाए। गौरतलब है कि वर्ष-2002 के राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे बढ़ाकर ऐसा दांव मारा था कि उनसे असहमति रखने वाली विपक्ष की राजनीतिक पार्टियां तो हैरान हो ही गई थीं, तत्कालीन सत्तापक्ष यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) भी मुलायम के दांव की कोई काट नहीं खोज पाया था। उसके बाद डॉ. कलाम निर्विरोध राष्ट्रपति बने और उन्होंने इस पद की जिम्मेदारी जिस गरिमा के साथ निभाई, वह ऐतिहासिक है। विपक्ष इस बार फिर 2002 दोहराना चाहता है और इसके लिए तमाम दलों के बीच बैठकें हो ही रही हैं।

लेकिन सत्तापक्ष 2007 और 2012 को दोहराना चाहता है। इन दोनों ही राष्ट्रपति चुनावों में केंद्र की सत्ता कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के पास थी। अत: उसने वर्ष-2007 में कांग्रेस की कद्दावर नेता प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति भवन भेज दिया था। उसने ऐसा ही 2012 में किया था, अपने कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन भेजकर। इस समय केंद्र की सत्ता एनडीए के पास है और वह चाहता है कि उसका ही कोई नेता देश का प्रथम नागरिक बने। लेकिन वह चूकना भी नहीं चाहता। अत: एनडीए का जोर इस पर है कि राष्ट्रपति तो उसी का नेता बने, पर वह ऐसा हो, विपक्ष जिसका विरोध करने से बचे और वह निर्विरोध चुन लिया जाए। इस तरह शहमात का खेल दोनों तरफ से प्रारंभ हो चुका है। इस खेल का नया दांव यह है कि विपक्ष यह चाहता है कि पहले सत्तापक्ष का उम्मीदवार सामने आए, ताकि उसे रणनीति बनाने में आसानी हो, जबकि सत्तापक्ष विपक्ष का उम्मीदवार सामने आने का इंतजार कर रहा है। देखना है कि कौन, किसका इंतजार खत्म कराता है, सत्तापक्ष विपक्ष का या विपक्ष सत्तापक्ष का।
वैसे, अपना उम्मीदवार जिताने की सत्तापक्ष की इच्छा तर्कसंगत है। यह सही है कि आजाद भारत में राष्ट्रपति के पद पर जो भी लोग बैठे, यदि हम एक-दो अपवादों को छोड़ दें तो उन्होंने देश के संवैधानिक प्रमुख के पद की गरिमा के अनुरूप ही काम किया। प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के नेता थे, पर ज्यों ही वे राष्ट्रपति भवन में पहुंचे, तो पूरी तरह से बदल गए। इस समय राष्ट्रपति और सरकार के बीच जो सामन्जस्य है, वह अद्भुत है। फिर भी, जब एनडीए की सत्ता है, तो उसे अधिकार है कि वह अपने किसी नेता को राष्ट्रपति भवन भेजने की कोशिश करे। आगे क्या होगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। अभी तो इतना ही कि राष्ट्रपति चुनाव का आगाज हो चुका है।

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