सामाजिक न्याय अब राजनीतिक विचार नहीं,न्याय चेतना का प्रश्न



संसदीय व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य का अर्थ सत्ता के लिए बहुमत बनाने वाले वोटरों को संतुष्ट करने के इर्द-गिर्द केंद्रित होकर रह जाता है। देश की राजनीतिक प्रक्रिया में एक बुनियादी बदलाव तब आया था, जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने संविधान में उल्लेखित सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़े वर्गो को सरकारी नौकरियों में विशेष अवसर यानी आरक्षण देने का फैसला किया था। संसदीय राजनीति में यह फैसला सामाजिक न्याय के नाम से जाना गया। यह वह दौर था, जब पूरी संसदीय राजनीति में हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज के सबसे निचले हिस्से को अपना वोट बनाकर स्वयं से जोड़ने का प्रयास शुरु हुआ।

इस प्रयास को ही सोशल इंजीनियरिंग के नाम से जाना गया। हिंदुत्ववादी संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और उसकी संसदीय पार्टी भाजपा ने भी इस सोशल इंजीनियरिंग की अनिवार्यता महसूस की। यह विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा शुरू की गई सामाजिक न्याय की राजनीति का ही असर था कि सभी को सोशल इंजीनियरिंग की जरूरत महसूस हुई। इसके कारण सामाजिक न्याय ने सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल पर संसदीय राजनीति को प्रभावित तो किया, मगर विचारधारात्मक राजनीति को पीछे छोड़ दिया। यानी, सामाजिक न्याय अब राजनीतिक विचार नहीं है, वह वोट का गणित हो गया है।
जब सामाजिक न्याय की जगह सोशल इंजीनियरिंग ने ले ली, तो उससे वर्ण व्यवस्था में निचले माने जाने वाले तबकों का नुकसान ही हुआ है। सत्ता में उनकी हिस्सेदारी तो बढ़ी, लेकिन उनके आर्थिक-सामाजिक हालातों में परिवर्तन नहीं हुआ। अब परिवर्तन की जगह प्रतीकों ने ले ली है। कभी किसी दलित चेहरे को आगे कर दिया जाता है, तो कभी किसी पिछड़े को और इन्हीं चेहरों के सहारे यह बताने की कोशिश की जाती है कि दलितों-पिछड़ों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदल गई है। भाजपा यही काम रामनाथ कोविंद के सहारे कर रही है, तो कांग्रेस ने इसी के लिए मीरा कुमार का सहारा लिया। इस तरह के प्रतीक पहले भी खड़े किए जाते रहे हैं।
जबकि समाज का सच अलग है। भारतीय समाज की व्यवस्था में दलित एक जाति नहीं है, वह उन जातियों के एक समूह को राजनीतिक तौर पर परिभाषित किए जाने वाला संबोधन है, जो कि हिंदुत्व की सामाजिक व्यवस्था में पायदान-दर-पायदान नीचे रहने के लिए बाध्य किए गए। सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ नेपाल के इतिहास से समझा जा सकता है। हिंदुत्व के आधार पर नेपाल को एकीकृत करने वाले राजा पृथ्वी नारायण शाह ने जब वर्ण व्यवस्था की परिभाषा को छोटा देखा, तो उन्होंने चार वर्ण 18 जातियों के बजाय इसे चार वर्ण 36 जातियों की एक नई परिभाषा दे दी। यानी, पृथ्वी नारायण शाह से पहले नेपाल के चार वर्णो में 18 जातियां होती थीं, जबकि उन्होंने 18 को 36 जातियों में बांट दिया, जिससे समाज और भी बंट गया।
यह सोशल इंजीनियरिंग नेपाल के राजा ने अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए की थी, जबकि भारत की संसदीय राजनीति में अलग तरह की सोशल इंजीनियरिंग होती है। यहां पिछड़े वर्ग की सबसे ऊपर की जाति की जगह दूसरे व तीसरे नंबर की जाति के नेता को आगे कर दिया जाता है। यही फामरूला अनुसूचित कही जाने वाली जातियों पर लागू किया जाता है। फिर, इन लोगों को दलित या पिछड़ों के नेता के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। अब इस सोशल इंजीनियरिंग ने ही संसदीय राजनीति में सामाजिक न्याय की जगह ले ली है। संसदीय पार्टियां अपने आधार की सोशल इंजीनियरिंग करने में जुटी हैं। इसी को अब तमाम चुनावों में प्रत्याशियों के चयन का आधार बनाने का प्रयास होता है।
राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद या फिर मीरा कुमार का चयन सामाजिक न्याय की चेतना से उपजा चयन नहीं है। यह सोशल इंजीनियरिंग के तहत किए गए चयन हैं। इनमें तात्कालिक तौर पर तो अपने-अपने उम्मीदवारों की जीत को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है, जबकि दूरगामी तौर पर तमाम विधानसभा चुनावों के साथ 2019 के लोकसभा चुनावों का भी ध्यान रखा गया है। जिस प्रकार भाजपा ने उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में पिछड़े वर्ग की जातियों में दूसरे नंबर की जातियों को आगे किया था, उसका रामनाथ कोविंद का चयन भी उसी तरह का है। वहां पिछड़ों पर दांव लगाया गया था, तो राष्ट्रपति चुनाव में दलितों पर, जबकि विपक्ष ने पहले नंबर की दलित जाति में महिला को भी जोड़ दिया है। नंबर की बात संबंधित जाति की आबादी व उस वर्ग में उस जाति की सामाजिक स्थिति के आधार पर की जा रही है।
दलितों की जिस जाति से मीरा कुमार आती हैं, उस जाति को उत्तरप्रदेश में मायावती का वोट माना जाता है, जबकि जिस जाति से रामनाथ आते हैं, उसे यूपी में मायावती से क्षुब्ध बताया जाता है, तो गुजरात में कांग्रेस का वोट माना जाता है। पर ये दोनों हैं तो प्रतीक ही। संसदीय राजनीति में प्रतिनिधित्व की जगह प्रतीक प्रतिनिधि ने ली है, तो इसके लिए केवल एक राजनीतिक दल दोषी नहीं है, बल्कि उसमें सभी ने एक जैसा काम किया है। मायावती अपने साथ एक ब्राrाण नेता और एक मुस्लिम नेता को अवश्य रखती हैं एवं यह उनकी अपनी सोशल इंजीनियरिंग है।
पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेतागण भी ऐसा ही करते हैं। सभी संसदीय राजनीतिक दल जातियों के ही समूह हैं। वर्चस्व वाले जाति समूहों की जगह शोषित महसूस करने वाली जातियों में पैठ बनाने का काम विपक्ष करता है, तो सत्तापक्ष में चाहे कोई भी हो, वर्चस्व वाले जाति समूह तो उससे जुड़ ही जाते हैं। ऐसे में ‘मैसेज’ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। रामनाथ कोविंद को सामने लाकर भाजपा ने दलितों को मैसेज दिया, तो मीरा कुमार को सामने लाकर विपक्ष ने। यह मैसेज केवल समाज को ही नहीं दिया जाता है, बल्कि एक राजनीतिक दल दूसरे दल को भी देता है। जैसे-भाजपा ने मायावती को मैसेज दिया कि उसने दलित उम्मीदवार उतारा है और उन्होंने समर्थन की घोषणा कर दी। फिर विपक्ष का मैसेज आया कि उसकी उम्मीदवार दलित हैं और महिला भी, तो मायावती ने अपना रुख बदल लिया। अब वे मीरा के साथ हैं।
इस तरह हमारी पूरी ही राजनीति सोशल इंजीनियरिंग की गिरफ्त में है। संसदीय पार्टियां समाज और अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को मैसेजों का आदान-प्रदान करती रहती हैं। इससे सामाजिक न्याय की चेतना कमजोर पड़ती जा रही है। इस चेतना से राजनीति में आए नेता ही इसे समाज में फैला सकते हैं, प्रतीक के तौर पर खड़े किए गए नेता नहीं। प्रतीक अपनी जगह बने रहते हैं और कभी सहारनपुर हो जाता है, तो कभी भगाड़ा कांड। इस तरह के प्रकरण तभी रुकेंगे, जब सामाजिक न्याय की चेतना का विस्तार होगा। पर भारत की संसदीय राजनीति में इस चेतना के प्रसार की गुंजाइश कम से कम होती चली जा रही है।

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