आत्महत्याओं पर रोक एक सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण की जरूरत



हम अखबारों में प्राय: आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं। आत्महत्या दरअसल जीवन से हार जाने का नाम है। यह एक तरह की कायरता है। जो इंसान जिंदगी से लड़ नहीं पाता है, वह खुदकुशी कर लेता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर वर्ष लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े यह भी साफ करते हैं कि आबादी के प्रतिशत के लिहाज से गुयाना, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के हालात कुछ ज्यादा ही चिंताजनक हैं। पर नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि हमारे यहां आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ रही है। भारत में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में हर एक लाख लोगों पर 2.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। हमारे यहां आत्महत्या करने वाले 37.8 फीसदी लोग 30 साल से भी कम उम्र के हैं। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसदी तक बढ़ी है।

गौरतलब है कि पिछले दिनों आई केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया था कि देश के कुल साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसदी लोग अवसाद के शिकार हैं। आशंका है कि अवसाद सन्-2020 तक दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी के रूप में उभरकर सामने आएगा। आत्महत्याओं की दृष्टि से देश में महाराष्ट्र का स्थान प्रथम है, उसके बाद तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल का स्थान है। चिंता की बात यह है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि देश के कई हिस्सों में गरीबों-किसानों द्वारा भी आत्महत्याएं कर ली जाती हैं। केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2017 के शुरुआती तीन महीनों में ही 116 किसानों ने आत्महत्याएं कर ली थीं। फिर, हर बार जब भी परीक्षा परिणाम आते हैं, देश के सभी हिस्सों से आत्महत्याओं की खबरें आने लगती हैं। दरअसल, आज अभिभावक बच्चों से पढ़ाई और कैरियर को लेकर बहुत अधिक उम्मीदें रखने लगे हैं। माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए वे जी-तोड़ मेहनत करते हैं, लेकिन कई बार वे अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो निराशा के चलते खुदकुशी जैसा घातक कदम उठा लेते हैं। इसे विडंबना ही कहिए कि यंग जनरेशन की बढ़ती आत्महत्याओं के जिम्मेदार न सिर्फ पेरेन्ट्स, टीचर तथा पड़ौसी हैं, बल्कि पूरा समाज भी है। बढ़ते हुए बच्चे को देखकर हर कोई अपना नजरिया उस पर थोपने लगता है। अरे क्या कर रहे हो? साइंस लिया है, तो कहेंगे कॉमर्स क्यों नहीं लिया। लोग ढेरों उदाहरण बच्चे को देंगे। ऐसी स्थिति में अभिभावक ही वह कड़ी है, जो अपने बच्चे को समझ सकता है, समझा सकता है। दुनिया उन्हें गलत समझे, तो बच्चे बर्दाश्त कर लेते हैं, पर माता-पिता गलत समझें, तो बच्चे टूट जाते हैं।
इसके अलावा आजकल हर व्यक्ति के अंदर अच्छा घर, कार और आधुनिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएं हासिल करने की लालसा बढ़ती जा रही है। इसके लिए वे जद्दोजहद भी करते हैं। जब सपने टूटते हैं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं, आत्मविश्वास भी हिल जाता है। इसी के चलते लोग जिंदगी से मायूस हो जाते हैं। कभी प्रेम में निराशा मिलने पर तो कभी आर्थिक तंगी, गृहकलह, दहेज के कारण भी आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। लंबी व गंभीर बीमारी भी व्यक्ति को कभी-कभी निराशा की उस चरम स्थिति तक ले जाती है, जब वह स्वयं का अंत कर लेता है। हकीकत यह है कि व्यक्ति को हमेशा बीमारी मृत्यु तक लेकर नहीं जाती। कई मर्तबा बीमारी से पहले व्यक्ति खुद को मृत्यु तक ले जाता है और फिर आत्महत्या कर लेता है। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या वास्तव में जीवन को खत्म कर लेना आसान है? हमारे समाज में ऐसा क्या है कि व्यक्ति अपने मन की दुविधाओं, दुखों एवं पीड़ा को किसी से साझा नहीं करता? अगर वह अपने दुखों को साझा करे तो शायद उसका दर्द, दबाव व तनाव भी कम हो जाए। एक प्रश्न स्वास्थ्य सेवाओं में काम कर रहे लोगों के मानवीय होने का भी है। डॉक्टरों को मरीजों व उनके परिजनों से भावनात्मक रिश्ता रखना चाहिए। इससे मरीज अवसाद में नहीं फंसता है।
परीक्षाफल और जिंदगी से मायूस हुए लोगों को सांत्वना देने का काम परिजनों के अलावा उसके दोस्तों तथा रिश्तेदारों का भी है। पैरेन्ट्स के बाद अगर कोई बच्चे को करीब से देखता है तो वह है टीचर। उन्हें बच्चों की आपस में तुलना न करके सामूहिक विकास पर बल देना चाहिए। निराशाजनक स्थितियों से गुजर रहे मनुष्य के अंदर जीने की इच्छाशक्ति को मजबूत करने का काम उसके परिचितों, मित्रों को करना चाहिए। उन्हें जीवन के संघर्ष से घबराने की जगह उससे मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर आत्महत्याओं पर रोक के लिए सामाजिक परिपेक्ष्य में एक सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण की जरूरत है।

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