सामाजिक मीडिया या अन्य वैचारिक मंचों पर बढ़ते कर, कमजोर पड़ते अधिकार



सामाजिक मीडिया या अन्य वैचारिक मंचों पर हो रही बहसों में प्राय: जनापेक्षा व राज्य के प्रयासों के बीच एक बड़ा गैप देखने को मिलता है, जिसे लेकर आम नागरिक बहुत से दबावों एवं संशयों के साथ-साथ कुछ हद तक प्रतिक्रियात्मक मनोदशा के साथ दिखता है। एक आम नागरिक की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार होती है- एक वेतन से कितने और कितनी बार टैक्स। आम जरूरत की चीजें खरीदें तो टैक्स, गाड़ी खरीदें तो टैक्स, सड़क पर चलें तो फिर से टैक्स, घर खरीदें तो टैक्स, बाहर खाना खाएं तो टैक्स, राशन खरीदें तो टैक्स, दवाई खरीदें तो टैक्स, कहीं फीस, कहीं बिल, कहीं ब्याज, कहीं सेवा, न जाने कितनी तरह के टैक्स..इसके बाद थोड़ी -बहुत सेविंग कर ली तो फिर से टैक्स।

आशय यह है कि सारी उम्र काम करने के बाद कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं, पेंशन नहीं, स्वास्थ्य सेवा पाने का बुनियादी अधिकार नहीं, बच्चों के लिए अच्छे सार्वजनिक स्कूल नहीं, अच्छा पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं, सड़कें खराब, हवा खराब, पानी खराब, सब्जियां जहरीलीं, हास्पिटल महंगे, आपदाओं से निपटने की कोई अच्छी व्यवस्था नहीं.. आदि। फिर, आखिर टैक्स का पैसा गया कहां? इसी क्रम में उत्तर दिया गया कि करप्शन व इलेक्शन में। इस जनशिकायत से किसी को भी ऐतराज नहीं होनी चाहिए। यह शिकायत न आधारहीन है और न ही तथ्यहीन।
हालांकि, ‘बहुकर प्रणाली’ एवं ‘कर के ऊपर कर’ (टैक्स ऑन टैक्स) किसी भी देश के नागरिकों पर जो दबाव डालते हैं, उससे ही वह उत्पीड़ित महसूस करता है। खासकर तब और, जब उसे सामाजिक सुरक्षा एवं सार्वजनिक सेवाओं का अधिकार हासिल न हो। लेकिन क्या इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि राज्य टैक्स के बदले सामाजिक सुरक्षा, सामुदायिक सेवा और आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं का सृजन नहीं करता अथवा आम नागरिक तक उनकी पहुंच सुनिश्चित कराने का प्रयास नहीं करता या वह अब तक इसमें पूरी तरह विफल रहा है?
इस विषय का यदि सापेक्ष एवं निरपेक्ष आकलन हो तो ही काफी हद उचित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकेगा। लेकिन इससे पहले एक प्रश्न और भी है। क्या राज्य आवश्यक सामाजिक व मानवीय सेवाएं उपलब्ध कराने में पूरी तरह से विफल रहा है? यदि देश का नागरिक इनके लिए कतारों में खड़ा है तो क्या इसके लिए केवल राज्य ही दोषी है? क्या किसी लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के लिए केवल राज्य ही उत्तरदायी होता है, नागरिकों का कोई दायित्व नहीं होता?
यदि गांवों के सरकारी स्कूल बूचड़खाने जैसे हो गए हैं और माध्यमिक व इंटरमीडिएट कॉलेजों की इमारतें अंदर खींचने की बजाय बच्चों को बाहर की ओर धकेलती हुई दिखती हैं, तो क्या इसका दोष प्रबंधन, टीचर, लोकल बॉडीज पर भी नहीं है? क्या भारतीय नागरिक उस दायित्वबोध से लैश है, जो मानवीय, सामाजिक, सार्वजनिक व राज्यिक दायित्व के लिए उसे स्वत:स्फूर्त करे? एक प्रश्न यह भी है कि क्या भारत के नागरिक जितनी गंभीरता व तत्परता के साथ छिद्रान्वेषण करते हैं, उतनी की ऊर्जा के साथ सरकार द्वारा पब्लिक डोमेन के जरिए मांगी गई सलाह देने में भी वे सक्रियता का परिचय देते हैं?
आज के दौर में ‘कोर सब्जेक्ट’ ‘कोर इश्यूज’ और ‘कोर प्रॉब्लम्स’ क्या हैं, कहां हैं, स्पष्ट नहीं हो पाता। यही वजह है, विषय जल्दी-जल्दी बदलते रहते हैं और विज्ञापनों के जरिए जनता को अपनी उपलब्धियां बताने के लिए राजनीतिक नाटकों का मंचन किया जाता है। इसलिए क्या इस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है कि उच्च कराधान, शिथिल रेग्युलेशंस तथा शार्ट टर्म गेन जैसे मार्गदर्शी सिद्धांत समाज में असमानता को तेजी से हवा दे रहे हैं। सरकारें नामी-गिरामी योजनाएं लाकर देश के नागरिकों को प्रत्येक स्थिति में यह बताते हुए स्वीकार कराना चाहती हैं कि यही वह उपाय है, जिसके द्वारा स्वर्णयुग नहीं, तो संक्षिप्त स्वर्ण युग तो आ ही जाएगा।
उदाहरण के रूप में केंद्र सरकार द्वारा अपनाई गई नोटबंदी को लिया जा सकता है, जिसके जरिए भारत के गरीबों को यह स्वप्न दिखाया गया कि इससे सरकार के कोश में इतना धन आ जाएगा कि उनकी गरीबी, बेरोजगारी सब दूर हो जाएगी, सिर्फ वे कुछ दिन धैर्य रखें। सच तो यह है कि नोटबंदी ने अनौपचारिक क्षेत्र को धराशायी कर दिया है। पिछले तीन वर्षो ने तो उससे पहले के एक दशक के मुकाबले कहीं ज्यादा ‘जॉबलेस ग्रोथ’ दी है। आज भी भारत में स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ में से सिर्फ एक छात्र ही कॉलेज पहुंच पाता है। यही नहीं, नामांकन अनुपात भी कम है। इसके उत्तरदायी कारण आर्थिक और सामाजिक हैं, साथ ही नामांकन के लिए अच्छे कॉलेजों में स्थानों की कमी व रोजगार की कम संभावनाएं हैं। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सरकार या तो राजकोष पर दबाव बढ़ाए अथवा पीपीपी मॉडल का प्रयोग यहां भी करे, तभी यह संभव हो पाएगा। मगर ऐसा होगा नहीं?
पहली स्थिति में सरकार की अन्य योजनाएं और कार्यक्रम प्रभावित होंगे। राजकोषीय घाटे में भी वृद्धि होगी। यह अंतरराष्ट्रीय साख और सरकार की वित्तीय प्रबंधन की योग्यता के लिहाज से नकारात्मक होगा। ऐसे में पीपीपी मॉडल का चुनाव या शुद्ध रूप से निजी पूंजी को प्रोत्साहित करने की जरूरत होगी, जिसके अपने जोखिम हैं। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि आजादी के पहले 50 वर्षो में सिर्फ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। पिछले 16 वष्रो में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। लेकिन शिक्षा के निजीकरण ने ‘डम्पिंग एण्ड वोमिटिंग’ की स्थिति निर्मित कर दी और शिक्षा का अर्थ भी बदल दिया।
अब शिक्षा का अर्थ है परीक्षा, अंक प्राप्ति, प्रतिस्पर्धा तथा व्यवसाय, जिनको व्यवसाय नहीं मिलता, वे बेकारों की सेना में भर्ती हो रहे हैं। एक शोध के अनुसार मानविकी में दस में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। देश के पास दुनिया की सबसे अधिक तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का जखीरा है, इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है। राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद के शोध के अनुसार हमारे 90 फीसदी कॉलेजों व 70 फीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमजोर है। अब जरूरत है ‘रन ऑफ द मिल’ यानी बने बनाए र्ढे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाने की।
मगर इसे करेगा कौन? सरकारें, जो शिक्षा पर कोई खास विजन लेकर नहीं आतीं। अधिकारी, जो स्वयं भी इसके लिए जिम्मेदार हैं या अध्यापक, जिनका बहुत हद तक नैतिक पतन हो चुका है? कमोबेश ऐसी ही स्थिति स्वास्थ्य और अन्य जरूरी सेवाओं के संबंध में भी देखी जा सकती है। तब यदि ऐसे प्रश्न उभरते हैं कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से दबे जा रहे आम नागरिक को आखिर सेवा और रोजगार पाने का मौलिक अधिकार क्यों नहीं है तो वे गलत भी नहीं।

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