Mosul में लड़ाई खत्म, मोसुल ही तय करेगा इराक का भविष्य


मोसुल में लड़ाई खत्म हो चुकी है। लंबे समय तक इस्लामिक स्टेट के कब्जे में रहा यह शहर अब इराक के नियंत्रण में आ गया है। इराकी प्रधानमंत्री हैदर अल अबादी ने भी मोसुल की स्थितियों को सुधारने, वहां के जनजीवन को सामान्य करने के लिए बहुत ही तेजी से कदम उठाए हैं। लेकिन उन्हें पता होगा ही कि उनके सामने चुनौतियां ढेरों हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि अब मोसुल के नागरिक आपस में मिल-जुलकर रहेंगे भी तो कैसे? इस्लामिक स्टेट के कब्जे के दौरान वहां की आबादी दो धड़ों में बंट गई थी। सुन्नियों का एक बड़ा धड़ा आतंकवादियों का न सिर्फ समर्थन कर रहा था, बल्कि वह खुद भी आतंकी बन बैठा था। दूसरे धड़े में शिया, कुर्द, यजीदी, ईसाई और कुछ सुन्नी भी शामिल थे, जो आतंकवादियों के निशाने पर थे। हां, इराक के प्रधानमंत्री ने लोगों से पुरानी बातें भूलकर आगे बढ़ने की अपील की है। उन्होंने कहा है कि अब मोसुल को शिया और सुन्नियों के भाईचारे की मिसाल बनना चाहिए, पर क्या यह आसान है? अपने पड़ौस में कोई ऐसे व्यक्ति को कैसे पसंद कर सकता है, जिसने उसके भाई या बेटे को मार दिया था या बेटी या बहू के साथ रेप किया था। इस्लामिक स्टेट के समर्थकों ने यही सब किया था, जो अब मोसुल में रहेंगे, क्योंकि उन्हें माफी मिल चुकी है।
क्या इनका साथ उन लोगों की पीड़ा नहीं बढ़ाएगा, जिन्होंने न केवल अत्याचार झेले हैं, बल्कि अपनों को खो भी दिया है? यह वह सवाल है, जो मोसुल के सांसद इंतिसार अल जिबौरी तमाम यूरोपीय समाचार चैनलों पर पूछते हैं। यह सवाल सही भी है। इस समस्या से बचने का उपाय यह है कि इस्लामिक स्टेट के समर्थक रहे लोगों को इराकी सरकार किसी दूसरी जगह बसाए। पर इसके लिए उसके पास पैसे नहीं हैं और ये पैसे होंगे भी कैसे, जब इराक के आय के सबसे बड़े स्रोत तेल के कुओं पर इस्लामिक स्टेट का लंबे समय तक कब्जा रहा है। रक्का जैसे तीन शहरों के तेल कुएं अब भी उसी के कब्जे में हैं। मोसुल के जो कुएं इराकी सरकार के कब्जे में आए हैं, वे तेल का उत्पादन करने लायक नहीं बचे हैं। या तो वे जंग में नष्ट हो गए हैं या फिर इस्लामिक स्टेट ने उन्हें उस समय नष्ट कर दिया, जब उसे अपनी हार पक्की लगने लगी। इस स्थिति में इराकी सरकार के पास इस समय तो पैसा है ही नहीं, भविष्य में भी उसकी आर्थिक स्थिति सुधरने की कोई सूरत दिख नहीं रही है। यानी, इस्लामिक स्टेट के समर्थकों एवं विरोधियों को मोसुल में ही रहना होगा, साथ-साथ। इसीलिए हैदर अल अबादी की चिंता यह है कि इन समुदायों के नागरिक कहीं एक-दूसरे के खिलाफ ही हथियार न उठा लें। इराकी सेना अगर इन्हें हथियारों के जोर पर आपस में लड़ने से रोकने के लिए मोसुल में ही रहेगी तो उन इलाकों को इस्लामिक स्टेट से कौन खाली कराएगा, जो अब भी उसके कब्जे में हैं? दूसरी ओर इराकी सेना ने यदि मोसुल को वहां के नागरिकों के हवाले छोड़ दिया तो वे लड़ने लगेंगे।
सबसे खतरनाक तथ्य यह है कि जो शिया और कुर्द लड़ाके मोसुल को खाली कराने के वास्ते इराकी फौज के साथ मिलकर काम कर रहे थे, वे अब आगे की किसी भी जंग में हिस्सा लेने के लिए तैयार नहीं। यह वे लड़ाके हैं, जो इराक के नहीं, बल्कि दूसरे देशों के हैं। कुर्द जहां तुर्की के हैं, तो शिया सीरिया के। मोसुल में इनकी रुचि इसलिए थी कि यह शहर सीरिया और तुर्की की सीमा के पास पड़ता है। सीरिया में बशर अल असद के विरुद्ध जो जंग हो रही है, उस पर इस्लामिक स्टेट मोसुल से ही नजर रख रहा था। बगदादी यहीं बैठकर तुर्की में भी अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। अत: अब जबकि मोसुल खाली हो चुका है, तो फिर सीरिया के शिया और तुर्की के कुर्द आगे की लड़ाई में इराक की फौज का सहयोग क्यों करेंगे? ये लड़ाके अगर अपने-अपने देश लौट जाएं तो कोई बात नहीं है। लेकिन वे मोसुल में रुके हुए हैं। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि वे इसका इंतजार कर रहे हैं कि कब इराक की फौज मोसुल छोड़कर जंग के अगले मोर्चे की तरफ बढ़े और कब वे उन लोगों को सबक सिखाएं, जो इस्लामिक स्टेट के साथ थे। हालांकि, इराक के पूर्व विदेश मंत्री और मोसुल के कुर्द नेता होशयार जेबारी ने कहा है कि इस्लाम बदला लेना नहीं सिखाता, वह तो दुश्मन को माफ करने की नसीहत ही देता है, लेकिन इसी के साथ वे यह भी कह देते हैं कि इस्लामिक स्टेट के गुनाह माफ करने लायक नहीं हैं। उसके समर्थक ज्यादा गुनहगार हैं।
इसका आशय यही है कि बदले की कार्रवाई में उन्हें भी कोई बुराई नहीं दिखती है। यानी, मोसुल की मुक्ति के बाद जो हालात बने हैं, वे बहुत अच्छे नहीं हैं। इराक का समाज शिया, सुन्नी एवं कुर्द में पहले ही विभक्त है। ईसाइयों एवं यजीदियों की तादाद तो इतनी कम है कि उनकी कोई आवाज ही नहीं है। मगर जिस तरह एक समुदाय दूसरे पर भरोसा नहीं करता, उसी प्रकार ये भी किसी पर भरोसा नहीं करते। मोसुल विश्वास बहाली का माध्यम जरूर बन सकता है, मगर इस्लामिक स्टेट के समर्थकों को माफी देकर हैदर अल अबादी ने यह संभावना समाप्त कर दी है। यदि मोसुल बंटा तो एक राष्ट्र के रूप में इराक का एकजुट रहना मुश्किल है।

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