राजनीतिक दलों ने विश्वविद्यालय में गोशाला का बेजा विरोध



माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के बिशनखेड़ी में बनने वाले नए परिसर में गोशाला खुलने का प्रस्ताव जैसे ही सामने आया, राजनीतिक दलों समेत एक विशेष समूह ने विरोध शुरू कर दिया। मीडिया ने भी इस मसले को पूरी तरजीह दी है, लेकिन कुछेक बड़े समाचार चैनलों और अखबारों ने तथ्यों के साथ न केवल छेड़छाड़ की है, बल्कि समूचे प्रकरण को अलग रंग देने की कोशिश भी की है। इस विवाद की पृष्ठभूमि पर नजर डालें, तो उसने तब तूल पकड़ा जब संस्थान के नए परिसर में बची भूमि पर गोशाला खोलने के लिए विज्ञापन दिया गया, जिसमें कई संस्थाओं को आमंत्रित किया गया है। विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कहना है कि नए परिसर में बची पांच एकड़ जमीन में से दो एकड़ में गोशाला खोले जाने की योजना है। गोशाला के लिए विश्वविद्यालय अपना धन व्यय नहीं करेगा, बल्कि इसे आउटसोर्सिग के जरिए चलाया जाएगा। इससे साफ हो जाता है कि इस मामले को लेकर जबरन विश्वविद्यालय को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है।
माखनलाल ऐसा पहला विश्वविद्यालय नहीं है, जिसमें गोशाला खोलने का फैसला लिया गया हो। देश के कई संस्थानों में पहले से ही गोशालाएं चल रही हैं, जिसमें शिक्षा संस्थानों में अग्रणी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय भी शामिल है। वहां न केवल गोसेवा की जा रही है, बल्कि विलुप्त होती गो नस्लों का संवर्धन भी हो रहा है। बहरहाल, यह बहुत ही विचारणीय स्थिति है कि जिन माखनलाल चतुर्वेदी ने वर्ष 1920 में एक ब्रिटिश कंपनी द्वारा सागर के रतौना नामक जगह पर कसाईखाना खोलने की समूची योजना पर पानी फेर दिया तथा अंग्रेजों को इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर कर दिया था, उनके नाम पर खुले विश्वविद्यालय में गोशाला का विरोध होना आश्चर्यजनक है। उल्लेखनीय है कि रतौना कसाईखाने से फिरंगियों ने प्रतिदिन 25 सौ गायों को काटने की योजना बनाई थी। माखनलाल चतुर्वेदी को जैसे ही इसकी जानकारी लगी, उन्होंने बड़ा आंदोलन छेड़ा। समाज के हर तबके के लोगों का समर्थन उन्हें प्राप्त हुआ। 17 जुलाई-1920 के ‘कर्मवीर’ में उन्होंने ‘गोवध की खूंखार तैयारी’ नाम से संपादकीय लिखा, जिसका असर यह हुआ कि यह आंदोलन राष्ट्रीय स्तर का हो गया। देश में चारों तरफ इस कसाईखाने का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ और अंग्रेजों को अपने घुटने टेकने पड़े। बहरहाल, अब सवाल उठता है कि इस गोशाला को लेकर व्यर्थ का वितंड़ा क्यों खड़ा किया जा रहा है? दूसरा सवाल वे कौन लोग हैं, जो विश्वविद्यालय के इस फैसले को राजनीतिक रंग देने का प्रयास कर रहे हैं? पहले सवाल के तह में जाएं, तो आजकल गोरक्षा का मसला चर्चा के केंद्र बिंदु में है और वामपंथियों और तथाकथित सेकुलर कबीले के लोगों के लिए गाय आस्था समान न होकर महज एक पशु है।
यह सर्वविदित है कि भारत का एक बड़ा जनमानस गाय को मां के समान मानता है और श्रद्धा भाव से पूजता भी है। इस मसले को अलग दृष्टि से समझें तो दिलचस्प यह भी है कि यही ब्रिग्रेड कुछ दिन पहले गोसेवा के लिए गोशालाएं और उनके रख-रखाव की मांग करती थी। अब, जब एक संस्थान ऐसा कुछ नया करने का प्रयास कर रहा है फिर इसका विरोध इस कबीले के दोमुंहेपन को ही दर्शाता है। दरअसल, नए परिसर में गोशाला खोलने से छात्रों के लिए किसी तरह की समस्या खड़ी होने वाली है, ऐसा सोचना समझ से परे है। गोशाला से छात्रों का अहित होने वाला है, इस प्रकार की भ्रामक अफवाहें क्यों फैलाई जा रही हैं? देश के कई संस्थान अध्ययन के अतिरिक्त कई अन्य प्रोजेक्ट और स्वयंसेवी कार्य करते हैं गोशाला भी उसी का हिस्सा है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने दलील दी है कि गोशाला खोलने से वहां के छात्रों तथा आसपास के लोगों के लिए शुद्ध दूध इत्यादि का प्रबंध हो सकेगा। कुछ लोग जिसमें छात्र भी शामिल हैं इस मुद्दे को लेकर ऐसा बवाल खड़ा कर रहे हैं, मानों अब पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने अपने सभी कार्यो को छोड़कर महज गोशाला पर ही ध्यान केंद्रित किया है।
देखा जाए, तो कुछ बाहरी अराजक तत्व विश्वविद्यालय की साख को चोट पहुंचाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। वह हर मसले को राजनीति, धर्म और विचारधारा से जोड़ने का जबरन प्रयास करते रहे हैं। उनका विरोध हमेशा चयनित व उनके राजनीतिक आकाओं के इशारे पर होता है, इसीलिए आज तक वे विश्वविद्यालय का एक भी फैसला बदलवा पाने में नाकाम रहे। ऐसे लोग विश्वविद्यालय के परिवेश के लिए घातक हैं। साथ ही वे संस्थान के पठन-पाठन और छवि को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। तर्क यह भी दिया जा रहा है कि अब पत्रकारिता विश्वविद्यालय से गोसेवक भी निकलेंगे। यह हास्यास्पद है। गोशाला और पठन-पाठन का कोई वास्ता नहीं है। जिनको ऐसा लग रहा उन्हें अपनी जानकारी दुरुस्त कर लेनी चाहिए। ऐसा बिलकुल नहीं है। परिसर में गोशाला बनने से न तो छात्रों के अध्ययन पर कोई प्रभाव पड़ने वाला है और न ही गोसेवा को पाठय़क्रम का हिस्सा बनाया गया है। ऐसे में यह विवाद सिर्फ चर्चा में बने रहने का जरिया है और कुछ नहीं।

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