देश में उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा बहुत ही खराब दौर से गुजर रही, हालात सुधरने जरूरी
देश में इस समय उच्च और तकनीकी शिक्षा बहुत ही खराब दौर से गुजर रही है। पिछले कई वर्षो से उच्च शिक्षा का ढांचा चरमरा रहा था, लेकिन तब इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया। अब मोदी सरकार से उम्मीद है कि वह इस दिशा में न सिर्फ प्रयास करेगी, बल्कि मौजूदा स्थितियों में भी सुधार लाएगी। पिछले दिनों उच्च और तकनीकी शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन यानी एआईसीटीई ने तय किया है कि जिन इंजीनियरिंग कॉलेजों में 30 फीसदी से कम दाखिले हो रहे हैं, उन्हें बंद किया जाएगा। देश भर में एआईसीटीई से संबद्ध करीब 10 हजार 361 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, जिनमें लगभग 37 लाख सीटें हैं। अब इनमें से करीब 27 लाख सीटें खाली पड़ी हैं, जो कि बड़ा और भयावह आंकड़ा है।
पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म बाबू मोशाय बंदूकबाज में डॉयलाग है कि ‘आदमी की जिंदगी में उसका किया हुआ उसके सामने आता है। ये डॉयलाग देश में उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था एआईसीटीई पर पूरी तरह से फिट बैठता है, क्योंकि पहले तो उसने बिना ठीक से परखे और गुणवत्ता की चिंता किए गली-गली में इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने के लाइसेंस दे दिए और बिना मांग-आपूर्ति, रोजगार का विश्लेषण किए 37 लाख सीटें कर दीं, अब जब उनमें से 27 लाख सीटें खाली रह गईं, तो उसके हाथ पैर फूल गए। यहां मुख्य सवाल तो एआईसीटीई से है कि उसने पहले कुछ क्यों नहीं किया? यूपीए सरकार के दौरान ही जब तकनीकी शिक्षा का आधारभूत ढांचा चरमरा रहा था तभी एआईसीटीई ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए? आखिर इतने बड़े पैमाने पर सीटें खाली रहने से और कालेजों के बंद होने का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर ही तो पड़ेगा।
यह बात सही है कि देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा की बुनियाद यूपीए सरकार के समय 2009 से ही हिलने लगी थी व 2014 तक लगभग 10 लाख सीटें खाली थीं। अगर 2009 में ही इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए गए होते तो, आज न तो सीटें खाली रहतीं और न ही कॉलेजों को बंद करने का फरमान जारी करना पड़ता। अब हालात ऐसे हो गए हैं जिन्हें संभालना बहुत मुश्किल दिख रहा है। देश में उच्च शिक्षा तेजी से अपनी साख खोती चली गई। पिछली नीतियों की लचरता के चलते अब तो आईआईटी में भी छात्रों की रुचि कम होती दिखाई दे रही है। आईआईटी में 2017-18 सत्र के लिए 121 सीटें खाली रह गई हैं। पिछले चार साल में आईआईटी में इतनी सीटें कभी खाली नहीं रहीं। आईआईटी के निदेशक मानते हैं कि सीटें खाली रहने का कारण मनपसंद विकल्प न मिलना है।
अब हालत यह हो गई है कि इंजीनियरिंग की जिस डिग्री को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह डिग्री छात्रों और अभिभावकों के लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है, जिसे न तो केवल घर पर रख सकते हैं और न ही फेंक सकते हैं। देश में यही हालत प्रबंधन के स्नातकों की है। एसोचैम का ताजा सर्वेक्षण बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य संस्थानों से निकले सात फीसदी छात्र ही नौकरी पाने के काबिल हैं। यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने के बजाय लगातार खराब होती जा रही है।
2007 में किए गए ऐसे सर्वे में 25 फीसदी, जबकि वर्ष 2012 में 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को ही नौकरी देने के काबिल माना गया था। नियामक संस्थाओं और सरकार का सारा ध्यान सिर्फ कुछ सरकारी संस्थानों पर ही रहता है, जबकि देश भर के 90 प्रतिशत युवा निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों से शिक्षा लेकर निकलते हैं और सीधी सी बात है अगर इन 90 प्रतिशत छात्रों पर कोई संकट होगा तो वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था के साथ साथ सामाजिक स्थिति को भी नुकसान पहुंचाएगा। सिर्फ आईआईटी व आईआईएम की बदौलत विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता है, बल्कि निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों पर भी ध्यान देना होगा। उन्हें बंद कर देने से कुछ हासिल नहीं होगा। बेहतर यह होगा कि निजी संस्थानों के छात्रों को सरकार रोजगार के लिए प्रशिक्षित करने की योजना बनाए। इस लक्ष्य को समयबद्ध तरीके से हासिल भी किया जाए।
असल में सरकार का ध्यान सिर्फ सरकारी संस्थानों पर रहता है और निजी क्षेत्र बुरी तरह से उपेक्षित रहता है, जबकि देश के विकास में निजी क्षेत्र बहुत बड़ा योगदान देता रहा है। मेवाड़ यूनिवर्सिटी के चांसलर डॉ. अशोक गाड़िया के अनुसार, हमने इंजीनियरिंग के कोर सेक्टर की ग्रोथ पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ी है। मसलन देश में मोबाइल क्रांति के शुरुआती चरण में हमें देश के हर राज्य में इसकी मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगानी चाहिए थी मगर हमने सिर्फ मोबाइल को चीन से आयात किया या फिर उसके सामानों की असेम्बलिंग करके बेचा, जबकि मैन्यूफैक्चरिंग का देश में बड़ा स्कोप था और है जिससे देश में युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिलता और वे व्यावहारिक तकनीक से भी जुड़ते लेकिन हमने इन बातों पर ध्यान ही नहीं दिया।
दूसरी बात इंजीनियरिंग के कोर सेक्टर में तकनीकी प्रशिक्षण के बजाय हम जोर सिर्फ अंग्रेजी सीखने में लगाने लगे। हम यह भूल गए कि इंजीनियर को सबसे पहले तो उसका काम आना चाहिए भले ही वह किसी भी भाषा में बात क्यों नहीं करता हो। अंग्रेजी सीखना या व्यक्तित्व विकास के कार्यक्रम करना गलत नहीं है, लेकिन सिर्फ इनकी कीमत पर इंजीनियरिंग के कोर सेक्टर में तकनीकी प्रशिक्षण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। असल में हमने यह बात समझने में बहुत देर कर दी कि अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल की शिक्षा भी जरूरी है। सीधी सी बात है जब छात्र स्किल्ड होंगे तो उन्हें रोजगार मिल सकेगा, तभी उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में व्याप्त मौजूदा संकट दूर होगा।
आज यूजीसी और एआईसीटीई से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास प्रबंधन और इंजीनियरिंग डिग्रीधारियों की वर्तमान व भावी मांग के संबंध में कोई तथ्यपरक आंकड़ा है भी या नहीं? क्या भविष्य में दूसरे नए संस्थान, कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलते समय में यह ध्यान में रखा जाएगा कि एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, डेंटल एवं फार्मेसी शिक्षा के कोर्सो की मांग और पूर्ति में संतुलन बना रहे? इस बात का विश्लेषण नियामक संस्थाओं को ठीक ढंग से करना पड़ेगा क्योंकि देश में उच्च शिक्षा को लेकर जो संकट है उसका प्रमुख कारण नियामक संस्थाओं का प्रभावी ढंग से काम न कर पाना ही है। अगर उन्होंने शुरुआत में ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित की होती, तो आज देश उच्च शिक्षा के संकट को नहीं झेल रहा होता। बहरहाल, अब मोदी सरकार से देश को आशा है कि वह इस क्षेत्र की बदहाली को दूर करेगी और उच्च शिक्षा के माहौल को बेहतर करेगी। देश में उच्च शिक्षा की बदहाली ही प्रतिभाओं को विदेश जाने पर मजबूर कर रही है। पिछली सरकारों को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए था।
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