सुप्रीम कोर्ट ने उन लोगों को नसीहत दी है, जो कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं



बुलंदशहर में गैंगरेप प्रकरण को राजनीतिक साजिश बताने वाले समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान के बयान के खिलाफ पीड़ित पक्ष द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के संदर्भ में भी कई महत्वपूर्ण व चिंतनीय बातें कहीं। न्यायालय ने सुनवाई करते हुए सोशल मीडिया पर अदालती निर्णयों के पक्ष-विपक्ष में होने वाली बहसों और कठोर टिप्पणियों आदि पर भी चिंता जताई। कई न्यायाधीशों को सरकार का समर्थक बताने वाली टिप्पणी को अदालत ने सिरे से खारिज करते हुए कहा कि जिन्हें ऐसा लगता है, वे न्यायालय में बैठकर देखें कि किस तरह सरकार की खिंचाई होती है। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष व वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने एक समाचार चैनल को दिए बयान में कहा था कि शीर्ष न्यायालय के कई न्यायाधीश ‘सरकार समर्थक’ हैं। दरअसल, इस तरह के सभी आरोप निराधार हैं व लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने वाले हैं।
वास्तव में सोशल मीडिया आज अभिव्यक्ति के ऐसे विकसित मंच के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जहां सब कुछ गोली की ही तरह तेज व तुरंत चलता है। यहां जितनी तेजी से विचारों का प्रवाह होता है, उतनी तीव्रता से उन पर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं एवं उनका फैलाव भी होता जाता है। मीडिया के प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में ऐसी तीव्रगामी प्रतिक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है, परंतु सोशल मीडिया इस मामले में विशिष्ट है। इसकी इस विशिष्टता के अच्छे व बुरे दोनों परिणाम सामने आने लगे हैं। अच्छे परिणामों की बात करें तो कोई भी विषय खबरों में आया नहीं कि अगले सेकंड या मिनट में ही वह सोशल मीडिया पर कमोबेश अपनी मौजूदगी दर्ज कराने लगता है। पोस्ट, टिप्पणियां व हैशटैग चलने लगते हैं। यहां तक कि अब कई मामलों में खबरों को लेकर सोशल मीडिया मुख्यधारा की मीडिया को भी प्रभावित करने लगा है। अकसर छोटी खबरें सोशल मीडिया पर चर्चित होते ही मुख्यधारा मीडिया में भी चर्चा पा जा रही हैं। केंद्र सरकार के निर्णयों और नीतियों को लेकर सवाल-जवाब कर दबाव बनाने में भी सोशल मीडिया ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज कराई है। सोशल मीडिया की ताकत को समझते हुए मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद कई मंत्री भी इसके जरिए लोगों से जन संवाद करने और उनकी समस्याएं सुनने लगे हैं। इस प्रकार सोशल मीडिया के अनेक सकारात्मक प्रभाव हुए हैं।
अब कुछ बात इसके नकारात्मक प्रभावों की भी करते हैं। सोशल मीडिया पर विचारों का प्रवाह जिस गति से होता है, उसमें सही-गलत देखने और विचारने का अवसर नहीं होता। तथ्यों का परीक्षण किए बिना ही लोग एक-दूसरे की देखा-देखी में पोस्ट करते जाते हैं। इस चक्कर में अकसर गलत एवं भ्रामक चीजें भी प्रचारित हो जाती हैं, जिनके कारण दंगा-फसाद होने से लेकर गलत धारणाएं भी पैदा होने जैसी बातें सामने आती रही हैं। इस बात को इस उदाहरण के जरिए भी समझा जा सकता है कि अभी हाल ही में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई, जिसके बाद कर्नाटक पुलिस तो मामले की तफ्तीश में लग गई, पर सोशल मीडिया पर एक खेमे के लोगों द्वारा खुद ही जज बनते हुए हत्या के लिए संघ व भाजपा को दोषी बताया जाने लगा। जबकि पुलिस की जांच में अब तक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है। इस प्रकार के अनेक मामले हैं, जिनमें सोशल मीडिया ने ऐसे बेहद गैर-जिम्मेदाराना एवं अमर्यादित रवैये का परिचय दिया है। स्वयं की बात को अंतिम सत्य सिद्ध करने की हठ में जुटे लोगों के बीच बहस के नाम पर कोई मर्यादा शेष नहीं रह जाती। किसी भी व्यापक विषय की बहस व्यक्तिगत आक्षेपों से होते हुए कब गाली-गलौज और धमकी पर पहुंच जाती है, पता भी नहीं चलता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी व्यक्ति पर कोई भी आरोप लगा देना, कुछ भी कह देना, इस माध्यम का चरित्र बनता जा रहा है।
न्यायालयों के निर्णयों और न्यायाधीशों पर होने वाली टिप्पणियां भी इसी प्रवृत्ति का उदाहरण हैं। ऐसा नहीं है कि इन विसंगतियों की रोकथाम के लिए कानून अथवा तंत्र नहीं है। बेशक, साइबर क्राइम विभाग इस दिशा में सक्रिय है, परंतु चिंताजनक तो सोशल मीडिया पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों का मौजूद होना है। इसका स्वरूप ऐसा है कि उस पर नियंत्रण का कोई भी तंत्र पूरी तरह से प्रभावी हो ही नहीं सकता। अनुचित एवं अभद्र टिप्पणी के लिए कार्रवाई किए जाने पर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बता देने का चलन तो खैर इस देश में बहुत तेजी से जोर पकड़ता जा रहा है। किसी भी शक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रयोग होते हैं। सोशल मीडिया भारत में अभी अपने यौवानोत्कर्ष पर है, इसलिए उसकी आक्रामकता स्वाभाविक है, परंतु उसे मर्यादाओं व जिम्मेदारियों को समझना होगा। अभिव्यक्ति की आजादी का महत्व समझते हुए उसका दुरुपयोग करने से बचने की जरूरत है। ऐसा कतई न हो कि सोशल मीडिया के धुरंधरों की ये नादानियां सत्ता को इस माध्यम पर अंकुश लगाने का अवसर दे बैठें। ऐसा होता है, तो भी गलती सरकार की ही बताई जाने लगेगी। खैर, समाज और सरकार को लेकर टिप्पणी करने का अधिकार तो सभी के पास है, लेकिन न्यायालय की निष्पक्षता पर सवाल उठाना कदापि सही नहीं होगा।

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