फिल्म पद्मावती के विरोध में अभिनेत्री दीपिक पादुकोण की नाक काटने की धमकी दी, तालिबान की तरफ भारत




देशभर में भारी विरोध और हंगामे के बाद आखिरकार फिल्म पद्मावती की रिलीज टल गई है, पर जिस तरह विरोध की पराकाष्ठा पार की गई, क्या वह स्वीकार करने योग्य है। रानी पद्मावती के चरित्र की रक्षा को लेकर जिस तरह का प्रपंच रचा गया, उसे हम किस श्रेणी में रख सकते हैं, क्या इस दिशा में कोई विचार करेगा। क्या यह अजीब नहीं है कि महाराष्ट्र पुलिस ने अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को तो विशेष सुरक्षा दी है, मगर जिसने कैमरे के सामने खुलेआम उनकी नाक काटने की धमकी दी है, वह छुट्टा घूम रहा है? हरियाणा के एक भाजपा नेता दीपिका का सिर काटकर लाने वाले को 10 करोड़ रुपए देने का ऐलान कर रहे हैं। कोई भंसाली को जिंदा नहीं छोड़ने की बात कर रहा है, तो कोई देश में बवाल मचाने की धमकी दे रहा है।
अब अगर इन सभी धमकियों और बयानों को देखें, तो लगता है जैसे देश को धीरे-धीरे पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसा बनाने की कवायद चल रही है, जहां की अदालतों में नाक-कान काटे जाने के बहुतेरे मामले सुनवाई के वास्ते विचाराधीन हैं। इस तरह की बर्बर घटनाओं से सभ्य कहे जाने वाला यूरोपीय समाज तक बचा नहीं है। अपने यहां गुंडा तत्व बड़े ही गर्व से शूर्पणखा का उदाहरण देते हैं। लेकिन ऐसा उदाहरण देते समय हिंसा में विश्वास करने वाले ये लोग भूल जाते हैं कि राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद शूर्पणखा एक औरत थी। यह विडंबना ही है कि महर्षि वाल्मिकी ‘रामायण’ में उन शब्दों का प्रयोग करते हैं जो एक औरत के सम्मान के विरुद्ध है। उन्होंने शूर्पणखा को घोड़े जैसी मुखाकृति वाली, कर्कश आवाज वाली नारी के रूप में उकेरा है।
शूर्पणखा की नाक काट लेने की घटना को सदियों से हम न्यायसंगत मानते रहे हैं इसलिए, क्योंकि धर्म तर्क करने की अनुमति नहीं देता। इस समय देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें तो और भी नहीं। समाज में विद्यमान ऐसी क्रूरता और विसंगति पर हम कभी विमर्श नहीं करते। भारतीय उपमहाद्वीप में औरत को अपमानित करने उसकी नाक काटने की इस वीभत्स और विकृत प्रवृत्ति को सबसे अधिक शह अफगानिस्तान में तालिबान शासन के समय मिली, जिसे कबीलाई समाज मर्दानगी दिखाने का जरिया मानता है। इस कृत्य को तालिबान दहशत फैलाने के वास्ते एक अस्त्र के रूप में प्रयोग करता है। अगस्त-2010 में टाइम मैगजीन के कवर पर जब एक अफगान युवती आयशा बीबी की नाक कटी तस्वीर छपी, तो दुनिया सिहर गई थी। आयशा का कसूर इतना था कि पति की रोज-रोज की मार को वह सह नहीं पाई थी और घर छोड़ दिया था।
टाइम मैगजीन की कवर स्टोरी के कई माह बाद करजई सरकार की नींद टूटी और आयशा के ससुर को गिरफ्तार किया। बाहरी दुनिया के लिए करजई चाहे जैसा शासन चलाते रहे हों मगर उनके दौर में भी अफगानिस्तान में औरतों की बड़ी दुर्दशा हुई। उन पर खूब सितम ढाए गए थे। इस खबर के बाद अफगानिस्तान में औरतों के नाक-कान काटे जाने के दर्जनों मामले नमूदार हुए थे। ऐसी दहशत को अफगानिस्तान की इस्लामिक काउंसिल व शरिया अदालतें कुरान की उन 114 सूराओं में से ‘सूरए निसा’ के 14वें आयत के हवाले से इसे सही ठहरा रही थीं। पाकिस्तान की स्थिति और भी बदतर है। वर्ष 2016 को पीओके में ऐन अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन एक औरत की नाक को उसके शौहर ने काट डाला था। रावलकोट से 35 किलोमीटर दूर अंदरोट पोटा नामक गांव की यह घटना थी।
पाकिस्तान में हर साल इस तरह की दर्जनों लोमहर्षक घटनाएं दरपेश होती हैं, जिसे सुनकर खवातीनों में दहशत का मंजर देखने को मिलता है। पाकिस्तान में नाक परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक होती है। अगर, घर की औरत की वजह से नाक नीची हुई तो उस औरत की नाक की खैर नहीं। ऐसे में शायद ही उसकी नाक सही-सलामत मिले। यह अकारण नहीं है कि 2011 में पाकिस्तान में 943 औरतों की हत्या हुई, नौ खवातीनों की नाक काटने, 98 को टार्चर करने, 47 को आग के हवाले कर देने और 38 महिलाओं पर तेजाब से हमले के मामले दर्ज किए गए थे। पाकिस्तान में औरतों के विरुद्ध हिंसा की वारदातों में हर साल कई गुना इजाफा होने की खबरें मिलती रही हैं।
यूरोप, जिसे हम बहुत सभ्य समझते रहे, वहां भी मध्य युग में ऐसी बर्बर घटनाओं को राज्य शासन व चर्च ने सही ठहराया था। पांचवी-छठी सदी का ‘फ्रेंकिश लॉ’ बेवफाई करने वाली औरतों और छल-प्रपंच करने वाले पुरुषों के नाक-कान काट लेने व चेहरे को बिगाड़ देने को सही कदम बताता था। 593 सदी तक जीवित रहे इस्टर्न आथरेडाक्स चर्च के बिशप ‘ग्रेगरी ऑफ टुअर’, जिन्हें संत की उपाधि दी गई है, उनके समय फ्रांस में नाक-कान काटने के कई उदाहरण मिले। बिशप ‘ग्रेगरी ऑफ टुअर’ के समय बाइबिल में एक पैरा ‘बुक ऑफ इजकिल चैप्टर 23 से 25’ में मिस्र की वारांगणा ओहोलिबाह की नाक काटे जाने के संदर्भ को न्यायोचित ठहराया गया। छठी सदी के रोमन लेखक थे जोर्डन्स, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गेटिका’ में लिखा कि उत्तरी अफ्रीकी देश वेंडाल के राजा हुनेरिक ने पहली पत्नी के नाक और कान काटकर उसके मायके भेज दिया था। दरअसल, किंग हुनेरिक को शक था कि उसके पिता को वह जहर देने की साजिश कर रही थी।
1453 तक रोम की सत्ता संभालने वाले बाइजेंटाइन शासकों के कार्यकाल में ओल्ड टेस्टामेंट के कुछ संदर्भो के हवाले से नाक, कान काटने की घटनाएं खूब हुईं और रुढ़िवादी चर्च की सरपरस्ती मिलती रही। डेनमार्क, इंग्लैंड और नार्वे पर 1035 ईस्वी तक शासन करने वाले किंग क्नूट ने तो बाकायदा कानून बना दिया था कि जो औरत पति के प्रति वफादार न हो, उसके नाक-कान काट दिए जाएं। 11वीं सदी में इंग्लैंड के किंग एडगर ने भी इस अंधे कानून को जारी रखा। इसलिए हम ये कहें कि धर्म की आड़ में सिर्फ हिंदू धर्माधों ने औरतों के नाक-कान काटे ऐसा नहीं है। पर क्या हम वापस मध्य युग की ओर लौट रहे हैं? दीपिका को दी गई धमकी के संदर्भ में यह सवाल तो बनता है।
सवाल तो यह भी है कि फिल्म पद्मावती को लेकर इतना हल्ला क्यों? क्या फिल्म को चुनावी मुद्दे की शक्ल देने की कोशिश नहीं हो रही है? क्या नेताओं का धर्म के नाम पर लड़वाने से मन नहीं भरा तो अब वे इतिहास के नाम पर लड़वा रहे है? सच्चाई यह है कि भारत के लोग जितने वर्तमान को लेकर सक्रिय नहीं हैं, उतने इतिहास को लेकर अपनी अति सक्रियता दिखाते हैं। अब भंसाली की फिल्म पद्मावती का ट्रेलर देखकर अंधविश्वास में ही सड़कों पर उतर आना, भारत बंद कर देने की घोषणा करने की धमकियां देना, भंसाली को थप्पड़ मार देना, आखिर विरोध जताने का ये कौन सा तरीका है? मीडिया के सामने दीपिका पादुकोण की नाक काटने को लेकर करोड़ों का इनाम देने की बात कहना क्या बताता है?
बहरहाल, पद्मावती को लेकर जिस तरह का प्रपंच व रुदन सामने आया है, वह कितना जायज है, यह फिल्म देखकर ही पता चलेगा। लेकिन जब तक फिल्म हमारे सामने नहीं आती है, तब तक तो हमें धैर्य रखना ही चाहिए। अभी विरोध का जो आलम है, उसका न तो कोई आधार है और न ही तर्क।

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