मुकदमों के बोझ से दबी अदालतें
राज एक्सप्रेस,भोपाल।कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्यायालयों में बढ़ते लंबित मामलों और जजों के खाली पदों (Court Pending Cases Judges Vacant Post)को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद पर सवाल उठाए हैं। भारत में न्यायिक सुधार की बातें सिर्फ बहसों तक सीमित रह गई हैं, जबकि इस दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से काम करने की जरूरत है। न्यायिक सुधार की जिम्मेदारी जजों, वकीलों और सरकारों पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि जनता को भी सोचने की जरूरत है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्यायालयों में बढ़ते लंबित मामलों और जजों के खाली पदों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद पर सवाल उठाए हैं। राहुल ने शनिवार को इससे संबंधित ट्वीट कर अपनी बात रखी। उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन का आदेश खारिज करने वाले जज केएम जोसफ की सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तावित नियुक्ति को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा। राहुल का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और स्थानीय अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामले हैं और न्यायालयों में लंबे समय से बड़ी संख्या में जजों के पद खाली पड़े हैं, जिससे न्यायिक प्रणाली ध्वस्त हो गई है। न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या और जजों की नियुक्ति न होना देश के न्यायतंत्र के लिए वाकई विकट परिस्थिति है, मगर यह समस्या ऐसी भी नहीं है कि जादू की छड़ी घुमाई और सब कुछ ठीक हो गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 150वें स्थापना वर्ष पर आयोजित समारोह में सर्वोच्च न्यायालय के ततकालीन प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने न्यायालयों में लंबित मुकदमों पर अपनी गहरी चिंता जाहिर की थी और जजों की पीड़ा बताते हुए रो तक दिए थे। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि न्यायपालिका में जारी सुस्ती पर सरकार काम करेगी और लंबित मुकदमों का बोझ कम करने के बाबत काम करेगी। हालांकि, अब तक प्रयास दिखा नहीं है। दरअसल, भारत में न्यायिक सुधार की बातें सिर्फ बहसों तक सीमित रह गई हैं, जबकि इस दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से काम करने की जरूरत है। न्यायिक सुधार की जिम्मेदारी सिर्फ न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं और सरकारों पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि आम जनता को भी इस दिशा में सोचने की जरूरत है। अदालतों में लंबित मुकदमों की सुनवाई मात्र ही इस समस्या का समाधान नहीं है।
पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों में संशोधन, अदालतों को अत्याधुनिक तकनीकी से लैस करने और सुरक्षित न्यायिक परिसर बनाने पर भी गौर करना होगा। न्यायपालिका में व्याप्त खामियों की वजह से कई समस्याएं पैदा हुई हैं। न्यायपालिका को देश की बाकी संस्थाओं से कतई अलग नहीं मानना चाहिए। जो दिक्कतें हमारे समाज में मौजूद हैं, कमोबेश वही न्यायपालिका में भी हैं। अमेरिकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था, ‘न्यायपालिका राज्य का सबसे कमजोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन होता है और न ही हथियार। धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना होता है और अपने दिए गए फैसलों को लागू कराने के लिए उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है।’ राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की रिपोर्ट के मुताबिक, बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है।
अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षो में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब 15 करोड़ तक पहुंच जाएगी। इस मामले में विधि एवं न्याय मंत्रलय के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार, देश में 2015 तक देश की विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे। इनमें सर्वोच्च न्यायालय में 66 हजार 713 उच्च न्यायालयों में 49 लाख 57 हजार 833 और निचली अदालतों में दो करोड़ 75 लाख 84 हजार 617 मुकदमे 2015 तक लंबित थे। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की तुलना में निचली और जिला अदालतों की हालत ज्यादा खराब है। मुकदमों की शुरुआत यहीं से होती है लेकिन यहां न तो पक्षकार सुरक्षित हैं और न ही उनके मुकदमों से जुड़े दस्तावेज। जाली दस्तावेज और गवाहों के आधार पर किस तरह यहां मुकदमे दायर होते हैं यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है।
ज्यादातर दीवानी मामलों में जमीनों का गलत लगान निर्धारण, दखल-कब्जा घोषित आदि कई ऐसे प्रसंग हैं, जो न केवल विवाद को बढ़ावा देते हैं, बल्कि उसकी परिणति में सामूहिक हत्याएं भी होती हैं। मध्य बिहार में हुए ज्यादातर नरसंहारों की मूल वजह भूमि विवाद ही रही है। जमीन-विवाद के कारण देश में हर साल हजारों लोगों की हत्याएं होती हैं। दीवानी मुकदमों का आलम यह है कि फैसला आने तक लाशें बिछ जाती हैं और मामला दीवानी के साथ-साथ फौजदारी में भी तब्दील हो जाता है।
एक कहावत है कि दुश्मनों को भी अस्पताल और कचहरी का मुंह न देखना पड़े। इसके पीछे तर्क यही है कि ये दोनों जगहें आदमी को तबाह कर देती हैं और जीतने वाला भी इतने विलंब से न्याय पाता है, वह अन्याय के बराबर ही होता है। छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े को लेकर पचास-पचास साल मुकदमे चलते हैं। फौजदारी के मामले तो और भी संगीन स्थिति में हैं।
अपराध से ज्यादा सजा लोग फैसला आने के पहले ही काट लेते हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मुकदमों की सुनवाई और फैसले की गति बहुत धीमी है। ऐसी स्थिति में निर्णय की गुणवत्ता और त्वरित न्याय की आशा करना बेमानी है। अमूमन सांसदों, विधायकों और मंत्रियों के वेतन और भत्ते बढ़ाने को लेकर सरकार और विपक्ष एक हो जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका में बजट वृद्धि के सवाल पर दोनों खामोश रहते हैं। अगर त्वरित सुनवाई और फास्ट ट्रैक कोर्ट की बात करें तो यह कुछ राज्यों में अच्छा काम कर रहा है, लेकिन कहीं-कहीं गड़बड़ी भी हो रही है। जल्दबाजी में फैसलों में कमी रह जाती है। जजों को उनके द्वारा पारित आदेश के प्रति उत्तरदायी बनाना चाहिए क्योंकि कई मुकदमों में पक्षकार को न्याय नहीं मिल पाता। इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा न्यायिक प्रणाली बेहद धीमी गति से काम कर रही है।
नतीजतन में अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करोड़ों तक पहुंच चुकी है। वर्षो तक मुकदमे फैसले के इंतजार में पीड़ितों का न सिर्फ समय और पैसा बर्बाद होता है, बल्कि सबूत भी धुंधले पड़ जाते हैं। देश में आबादी के लिहाज से जजों की संख्या बहुत कम है, विकसित देशों की तुलना में कई गुना कम। जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश विधि आयोग ने की है, लेकिन उन सिफारिशों का पालन नहीं हुआ। मुकदमों के लंबित रहने की एक वजह निचली अदालतों की कार्य संस्कृति भी है। वकील बगैर किसी ठोस आधार पर अदालत में तारीख आगे बढ़ाने की अर्जी दाखिल कर देते हैं और वह आसानी से मंजूर भी हो जाती है। इस बाबत कुछ कठोर नियम बनाने होंगे। सुनवाई की तारीखों का अधिकतम अंतराल तय होना चाहिए। जब तक विशेष जरूरी न हो वकीलों को अगली सुनवाई की तारीख नहीं मांगनी चाहिए।
अगर कोई मुकदमा नियत समय में फैसले तक नहीं पहुंचता है तो उसे त्वरित सुनवाई की प्रक्रिया में शामिल करने की मुकम्मल व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ जानकारों का मानना है कि जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ानी चाहिए, इससे मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी। इजरायल, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 साल के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिए कोई आयु सीमा तय नहीं है। फिर भारत में ही जजों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा इतनी कम क्यों है? इस दिशा में भी काम किया जाना चाहिए।
सभी लोग कहते हैं कि न्यायपालिका में सुधार होना चाहिए लेकिन यह कैसे होगा हमें यह तय करना होगा। विधि आयोग ने कई सिफारिशें केंद्र सरकार को सौंपी है। उस रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं, लेकिन अफसोस इस दिशा में गंभीर पहल की कमी है। न्यायपालिका में काफी सुधार की गुंजाइश है। लेकिन सिर्फ समस्या गिनाने से कुछ नहीं होता, बल्कि उन सिफारिशों पर अमल करने से समस्याएं हल होंगी जो न्यायविदों ने सरकार को सौंपी है।
पुरुषोत्तम रघुवंशी (सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता)
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