उपचुनाव पर भारी राज्यसभा की सफलता


राज एक्सप्रेसभोपाल। संख्याबल के लिहाज से भाजपा राज्यसभा की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और कुछ क्षेत्रीय दलों की मदद से आसानी से बहुमत के आंकड़े तक पहुंच सकती है। ऐसे में अब भाजपा के सामने उच्च सदन से किसी बिल को पास कराने के लिए पहले जैसी टेंशन नहीं रही। भाजपा और बहुमत के बीच का यह फासला और घटेगा क्योंकि तीन मनोनीत सांसदों का कार्यकाल खत्म हो रहा है और इनकी जगह नए लोग मनोनीत होंगे।
23 मार्च को संसद की 26 राज्यसभा सीटों के लिए सात प्रदेशों की राज्य विधानसभाओं में चुनाव हुए। वास्तव में राज्यसभा के लिए कुल 17 राज्यों में चुनाव हुए थे। इनमें से 10 राज्यों के 33 प्रत्याशियों को तो निर्विरोध चुन लिया गया और शेष सात राज्यों-उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, झारखंड, केरल, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ से सामान्य प्रक्रिया द्वारा सदस्य चुने जाने थे। इन 17 राज्यों के 58 राज्यसभा सांसदों का कार्यकाल अप्रैल-मई में समाप्त हो रहा है। दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रतिनिधि राज्य है। सात राज्यों में से अकेले उत्तरप्रदेश से 10, पश्चिम बंगाल से पांच, कर्नाटक से चार, झारखंड से दो, केरल से एक, तेलंगाना से तीन व छत्तीसगढ़ से एक सीट निर्धारित है।
उत्तरप्रदेश में नौ सीटों पर भाजपा व एक पर सपा, पश्चिम बंगाल में तीन पर तृणमूल व एक पर कांग्रेस, कर्नाटक में तीन पर कांग्रेस व एक पर भाजपा, झारखंड में एक पर भाजपा, एक पर कांग्रेस, केरल में एक पर जेडीयू तथा तेलंगाना में सभी तीन सीटों पर सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति को विजय मिली। अभी राज्यसभा में भाजपा के 58 सांसद हैं, जिनमें से 14 सांसद अप्रैल में सेवानिवृत्त हो जाएंगे। अप्रैल के बाद उसके मात्र 44 सांसद होते लेकिन इस चुनाव के बाद उसके 28 और सांसद हो गए। इस तरह उसकी राज्यसभा सांसदों की संख्या 72 हो गई, जिसमें से 17 प्रत्याशी निर्विरोध चुने गए हैं। इसके बाद भाजपा सदन में सबसे बड़ा दल हो गया है। 1980 में पार्टी के गठन के बाद यानी 38 वर्षो की राजनीतिक यात्रा में वह पहली बार राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनी है।
राष्ट्र संचालन के शीर्ष प्रशासनिक अंग राज्यसभा सदन में भाजपा सांसदों का संख्याबल सबसे अधिक होना अद्वितीय उपलब्धि है, लेकिन 245 सदस्यीय सदन में बहुमत के लिए अनिवार्य 126 संख्या बल तक पहुंचने के लिए भाजपा को अभी कुछ और वर्षो तक प्रतीक्षा करनी होगी। 2014 तक राज्यसभा में कांग्रेस द्वारा मनोनीत व कांग्रेस शासित प्रदेशों के प्रतिनिधियों की ही राज्यसभा सदस्य के रूप में अधिक गिनती थी, जो 2014 के बाद भाजपा द्वारा विभिन्न राज्यों में बहुमत से चुनाव जीतने पर कम होती रही। लेकिन इस बार अकेले उत्तरप्रदेश से भाजपा नौ सीटें (एक भाजपा समर्थित सपा अनिल अग्रवाल की सीट) जीती है। बाकी पांच प्रदेशों से उसे कुल तीन सीटें और मिलीं। उत्तरप्रदेश ऐसा प्रदेश है जो केंद्रीय सत्ता के समीकरण को बनाने और बिगाड़ने में हमेशा प्रमुख भूमिका में होता है।
पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश के राज्यसभा चुनावों में ऐसे ही समीकरणों को बनते-बिगड़ते देखा गया। जिस राजनीतिक उद्देश्य से गोरखपुर, फूलपुर लोकसभा सीट पर उप-चुनाव के लिए सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था, वह राज्यसभा चुनाव में बसपा के एक भी सांसद के न चुने जाने से ध्वस्त हो गया है। 403 विधायकों वाले उत्तरप्रदेश में भाजपा के पास 324 विधायक हैं। बहरहाल, उत्तरप्रदेश से राज्यसभा के लिए 10 सीटें आरक्षित हैं। इस गणना के अनुसार, एक राज्यसभा प्रत्याशी को विजयी बनाने के लिए 37 विधायकों के मत की आवश्यकता होती है। भाजपा के 324 विधायकों के अनुसार उसकी 8 राज्यसभा सीटें तो पहले ही सुनिश्चित थीं। आठ राज्यसभा सदस्यों को चुनने के बाद भी 324 में से उसके 28 विधायक बचते थे।
यह संभावना पहले ही थी कि, यदि भाजपा को विपक्षी दलों या निर्दलीय दलों के किन्हीं 9 और विधायकों का साथ मिले तो 9वीं राज्यसभा सीट भी उसी की होगी, और अंतिम चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसा हुआ भी। 403 में से 400 विधायकों ने मतदान किया था। सपा के हरिओम यादव व बसपा के मुख्तार अंसारी के जेल में बंद होने के कारण चुनाव आयोग ने उनके मतदान पर रोक लगा दी थी, जबकि बिजनौर से भाजपा विधायक की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के बाद खाली पड़ी सीट की मतगणना नहीं हो सकी। उन्नाव जिला स्थित पुरवा क्षेत्र के बसपा विधायक अनिल सिंह ने अप्रत्याशित रूप में भाजपा प्रत्याशी को वोट देकर बसपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बसपा का राज्यसभा की सीट के बिना रह जाना भाजपा और उसके समर्थकों के लिए बहुत बड़ी सफलता है।
दूसरी तरफ यूपी में सपा के 47 विधायक हैं। 37 विधायकों के समर्थन वाली एक सीट उसकी सुनिश्चित थी, जिस पर उसने जया बच्चन को चुन लिया था। इसी बात से नाराज होकर नरेश अग्रवाल पिछले दिनों सपा छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। उप-चुनाव से पूर्व जिस तरह सपा-बसपा का राजनीतिक गठबंधन तैयार हुआ तथा कांग्रेस ने जिस तरह इसे राजनीतिक समर्थन दिया, उससे लगने लगा था कि बसपा उप-चुनाव में अपने प्रत्याशी इसीलिए नहीं उतार रही क्योंकि उसे राज्यसभा में अपनी एक सीट सुनिश्चित करनी है और इसके लिए उसे राज्यसभा चुनाव आते-आते सपा, कांग्रेस, रालोद व दो निर्दलीय विधायकों की सहायता से अपना प्रत्याशी उतारने का अवसर भी मिल गया था। लेकिन क्या पता था कि बसपा विधायक अनिल सिंह राज्यसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करके बसपा को झटका दे देंगे।
यह राजनीतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण और परम विचारणीय अवसर है कि इस बार उत्तर प्रदेश से कांग्रेस व बसपा का एक भी सदस्य राज्यसभा के लिए नहीं चुना गया है। गोरखपुर, फूलपुर व अररिया लोकसभा सीटों पर भाजपा की पराजय के बाद उपजी उसकी हताशा व रोष में अवश्य ही यूपी के राज्यसभा चुनाव के बाद कमी हुई होगी। बहरहाल, यूपी समेत सात राज्यों में राज्यसभा की 25 सीटों में 12 सीटें जीत भाजपा ने देश के उच्च सदन में भी अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। संख्याबल के लिहाज से भाजपा राज्यसभा की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और कुछ क्षेत्रीय दलों की मदद से आसानी से बहुमत के आंकड़े तक पहुंच सकती है। ऐसे में अब भाजपा के सामने उच्च सदन से किसी बिल को पास कराने के लिए पहले जैसी टेंशन नहीं रही।
भाजपा और बहुमत के बीच का यह फासला और घटेगा क्योंकि तीन मनोनीत सांसदों का कार्यकाल खत्म हो रहा है और इनकी जगह नए लोग मनोनीत होंगे। ऐसे में मोदी सरकार के लिए गैर-एनडीए और गैर-यूपीए दलों से मुद्दे पर आधारित समर्थन हासिल करना आसान होगा। निर्दलीय और मनोनीत सदस्यों का समर्थन मिलने के बाद मोदी सरकार के लिए अपने मनचाहे बिलों को पास कराने में कोई खास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। लोकसभा में भाजपा अकेले दम पर बहुमत में है। एनडीए के सहयोगियों के साथ 540 सदस्यीय लोकसभा में इसकी सदस्य संख्या 315 है। परिणाम आने के बाद साफ हो गया है कि एनडीए को अगर एआईएडीएमके, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस और बीजेडी जैसी पार्टियों का समर्थन मिल जाता है तो बहुमत के आंकड़े यानी 123 को हासिल करना कठिन नहीं होगा।
हालांकि वर्ष 2019 में ओडिशा में बीजेपी बीजेडी की प्रतिद्वंद्वी है लेकिन पार्टी पहले के कुछ मौकों पर केंद्र सरकार को नीतिगत समर्थन देती आई है। हालांकि आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि अभी राज्यसभा में 115 सदस्यों (यूपीए, लेफ्ट और तृणमूल) की तरफ से सरकार को कड़ी चुनौती मिलती रहने वाली है। सरकार के पास तीन सदस्यों के कार्यकाल खत्म होने पर नए सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार है। माना जा रहा है कि ये तीन सदस्य भी सरकार का ही समर्थन करेंगे। निर्दलीय सदस्यों के भी सरकार के साथ ही आने की संभावना है। सरकार अहम मुद्दे पर अपने पूर्व सहयोगी इंडियन नेशनल लोकदल से भी बात कर सकती है जिसके पास राज्यसभा की एक सीट है।

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