भाजपा गंभीरता से ले चुनाव परिणाम और मतदाताओं की नाराजगी को दूर करें


गोरखपुर, फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव ने चौंकाने वाले नतीजे दिए हैं। कहा जा रहा है कि दोनों जगह मतदाताओं ने सपा-बसपा को जिताने के लिए नहीं, बल्कि भाजपा को हराने के लिए वोट किया था। अब जबकि नतीजे भाजपा के लिए बेहतर नहीं आए हैं, तो उसे गंभीरतापूर्वक मंथन करना चाहिए और मतदाताओं की नाराजगी को दूर करना चाहिए। मंथन इस बात पर भी करना होगा कि एक साल पुरानी सरकार से जनता का मोहभंग क्यों हो गया? गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव ने चौंकाने वाले नतीजे दिए हैं। इन नतीजों के कई मायने निकाले जा रहे हैं और उतने ही स्पष्टीकरण भी दिए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कह रहे हैं कि अति आत्मविश्वास के कारण भाजपा हार गई। पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का कहना है कि यह विकल्प की जीत है और सामाजिक न्याय की जीत है।

सपा और सहयोगी दलों की जीत है, लेकिन जीत की समीक्षा सुविधानुसार ही पेश की जा रही है। कहानी इससे कहीं आगे जाती दिख रही है। उपचुनाव के नतीजों के कई मायने हैं। सबसे पहला मायने तो यह है कि भाजपा हारी है। योगी हारे हैं। वरना एक दो-तिहाई बहुमत वाली एक साल पुरानी सरकार केंद्र में उसी पार्टी की सरकार के प्रत्याशी अपनी जीती हुई सीटों पर चुनाव क्यों हार जाते? उससे भी बड़ा कारण यह है कि गोरखपुर योगी की सीट है जो सूबे के मुख्यमंत्री हैं और फूलपुर केशव प्रसाद मौर्य की सीट है, जो राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं। इनकी सीटों पर हार भाजपा के लिए किसी और सीट पर होने वाली हार से कहीं बड़ी है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भले ही इस बात से खासी राहत महसूस कर रहे हों कि यह उनके लिए सूनेपन में ठंडी बयार बनकर आया हुआ जनादेश है।

लेकिन सच तो यह है कि लोगों ने सपा-बसपा को जिताने के लिए नहीं, मोदी और योगी को सबक सिखाने के लिए वोट किया है। सबक सिखाने के लिए एक विकल्प लोगों को चाहिए था, जिसमें भाजपा की लहर से टक्कर लेने की क्षमता का मतगणित हो। सपा को बसपा के समर्थन ने वह गुंजाइश पैदा कर दी और लोगों ने भाजपा को नकार दिया। भाजपा बार-बार यह दोहराएगी कि इसका योगी की परफॉर्मेस से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन दरअसल यह लड़ाई परफॉर्मेस और अंतरकलह की ही है। योगी गुंडों को सबक सिखाने के अलावा और कुछ नहीं कर पा रहे हैं। न बिजली का सवाल सुलझा है, न बच्चों की मौतें रुकी हैं। इस जनादेश में पार्टी की कलह की कहानी प्रमाण में बदल गई। हार के बाद प्रेस से बात करते हुए केशव मौर्य ने कह भी दिया कि फूलपुर तो भाजपा एक बार ही जीती थी।

गोरखपुर तो दशकों से भाजपा की थी, फिर भी हम हार गए हैं। दरअसल यह उस टीस की आवाज थी, जो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से लेकर अब तक के उनके अंदर भरी हुई है। उनके संयोजकत्व में भाजपा ने 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा है। उनके नाम की चर्चा मुख्यमंत्री पद के लिए होती रही है। लेकिन छीका तो योगी लूट ले गए है। तब से लेकर आज तक योगी व मौर्य अपनी अपनी गद्दी से अपने-अपने तरीके से सूबे की सरकार चला रहे हैं। ऐसी बातें लोगों के बीच चर्चा में रहीं कि योगी चाहते हैं केशव फूलपुर हार जाएं। केशव की सीट पर पार्टी की हार योगी को केशव के सापेक्ष और भी बड़ा कर देती। उधर ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय का संघर्ष गोरखपुर में अपने चरम पर पहुंचता जा रहा था। इसे संतुलित करने के लिए भाजपा ने महेंद्र पांडे को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।

कई महीनों की रस्साकसी के बाद योगी की सलाह के बिना पंडित को गोरखपुर सीट से प्रत्याशी बनाया। जिसका नतीजा यह रहा कि न तो फूलपुर में भाजपा पूरे आत्मविश्वास से भरे दिखे और न ही गोरखपुर में योगी की हिंदू युवा वाहिनी प्रचार में कूदी। भले ये बातें हों, लेकिन माहौल बनाने बिगाड़ने में बातों की अहमियत होती है। योगी और भाजपा इन्हें रोक न सके। जिस गोरखपुर में भाजपा हारी है वह योगी की सीट है और योगी लगभग हर सप्ताह गोरखपुर पहुंचे रहते हैं। तो क्या सूबे का मुख्यमंत्री और गोरखपुर का महंत ऐतिहासिक जीत के बाद सरकते जनादेश को देख नहीं सका? क्या योगी ने यह नहीं सोचा होगा कि उनकी मर्जी के विपरीत एक पंडित को टिकट देकर भाजपा उनके क्षत्रियवाद और वर्चस्व को कमजोर करना चाहती है? गोरखपुर में भाजपा प्रत्याशी जीतता तो अगड़ों की लड़ाई में एक संतुलन लाने का काम करता है।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं है और इसीलिए गोरखपुर में भाजपा की हार योगी की हार से भी बड़ी है। हार इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि इसमें लोगों के असंतोष से ज्यादा पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का हि असंतोष निहित है। कार्यकर्ता लगातार उपेक्षा की शिकायत करते आ रहे हैं। समर्थक योगी की शासन शैली से पूरी तरह नाखुश हैं। ऐसे में जमीन पर काम करने के लिए जो टीम भाजपा को चाहिए थी, वो कमजोर पड़ गई हैं। भाजपा अगर इस चुनौती को दरकिनार करती है तो इसका असर अगले साल के चुनावों पर भी देखने को मिल सकता है। ऐसा होता है, तो यह भाजपा के लिए बेहतर नहीं होगा। ऐसा भी नहीं है कि ये नतीजे सपा-बसपा के बीच के समझौते की जीत है। हालांकि 23 साल बाद दोनों दलों का साथ आना एक ऐतिहासिक सुधार ही है, लेकिन उपचुनाव में जीत एक शुरुआती संकेत भर है।

यह संकेत इन दोनों दलों के साथ की स्वीकारोक्ति कम, भाजपा से नाराजगी ज्यादा है। हां, समझौते ने लोगों को विकल्प दिया है, लेकिन इस विकल्प को आगे ले जाने के लिए अभी दोनों दलों को खासी मेहनत करनी है। लोगों के बीच भी और पार्टियों के भीतर भी। उपचुनाव के नतीजों के बाद अब भाजपा और संघ को सोचना होगा कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को एक जाति के चश्मे से देखने वाला नेतृत्व कब तक सत्ता व लोकप्रियता को ही साधे रख पाएगा। अखिलेश के समय लोगों में भ्रम था कि सरकार कौन चला रहा है-अखिलेश, शिवपाल, मुलायम या आजम खां। वही भ्रम की स्थिति वर्तमान भाजपा सरकार ने भी बनी हुई है। नौकरशाही से लेकर लोगों तक यह भ्रम पसरा है। साथ ही सपा और बसपा को भी सोचना है कि जो उम्मीद लोगों ने जगाई है उसके लिए वो बलिदानों के लिए तैयार होते हैं

भविष्य में भाजपा के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर थे या यूं कहें कि जिनके बल पर भाजपा अपने नवें प्रत्याशी को जिताना चाहती है। यूपी से रिक्त हो रहीं 10 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव प्रक्रिया चल रही है। इन सीटों के लिए 13 प्रत्याशी मैदान में हैं। इनमें 11 प्रत्याशी भाजपा के या फिर उसके समर्थन वाले हैं, जबकि एक-एक प्रत्याशी सपा और बसपा का है। 23 मार्च को राज्यसभा के लिए वोट पड़ने हैं। सपा के पास 47 विधायक हैं और अपना प्रत्याशी जिताने के बाद उसके पास 10 वोट बच रहे हैं। बसपा के पास 19 वोट हैं, जबकि जीत के लिए 37 वोट चाहिए। बाकी वोटों के लिए ही बसपा और सपा के बीच समझौता हुआ था। हालांकि, उपचुनाव के परिणाम जिस तरह विपक्ष के समझौते के साथ दिखे, उससे माना जा रहा है कि विपक्ष के विधायक अब इधर-उधर जाने से पहले एक बार सोचेंगे जरूर।
 
संजीव निगम (राजनीतिक विश्लेषक)

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