हिंसा के बीच गुम हो गए असल मुद्दे


राजएक्सप्रेस,भोपाल। एससी/एसटी एक्ट में बदलाव (Changes in SC/ST Act)के बाद देशभर में हुई हिंसा दलित समुदाय के हित की रक्षा से कहीं ज्यादा पुट सियासी फायदा उठाना भी रहा है। अगले माह कर्नाटक सहित इस साल देश के तीन बड़े राज्यों में चुनाव होना है। भाजपा और कांग्रेस समेत सभी दल दलितों को साधने का उपक्रम करेंगे, मगर दलितों को वोट बैंक बनाकर रखने की मंशा ने उनके असल मुद्दों को हाशिए पर डाल दिया है। यही वजह है कि वे हिंसक हो रहे हैं।
माहौल चुनावी हो, उसके ऐन पहले व्यापक समुदाय के मानस पर असर डालने वाली घटना हो जाए तो उसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश न हो, मौजूदा हालात में ऐसा संभव नहीं। एससी-एसटी एक्ट में बदलाव को लेकर 16 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दो अप्रैल के भारत बंद में दलित समुदाय के हित की रक्षा से कहीं ज्यादा पुट सियासी फायदा उठाना भी रहा है। कर्नाटक में 12 मई को विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। राज्य के करीब 23 फीसद वोटर दलित समुदाय से आते हैं। जाहिर है कि उनके एकजुट होने का फायदा उस राजनीतिक दल को मिलेगा, जिसका वे समर्थन करेंगे।
फिर उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के उपचुनाव को छोड़ दें तो हाल के दिनों में भारतीय जनता पार्टी ने जो जीत हासिल की है, उसमें भी दलित वोटरों की बड़ी भूमिका रही है। 2001 के बंगारू लक्ष्मण के नागपुर संदेश से जिस दलित समर्थन की उम्मीद भारतीय जनता पार्टी ने लगाई थी, वह हाल के दिनों में फलीभूत होने लगा था। जो गैर भाजपा दलों के लिए बड़ी चुनौती बनता रहा है। इसलिए अगर भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों को भारत बंद में मोदी विरोधी दलों और नेताओं की चिंताएं भी नजर आ रही हैं तो हैरत नहीं चाहिए।
केंद्र में मोदी की सरकार बनने से पहले तक भाजपा को ब्राह्मण-बनिया की पार्टी कहा जाता रहा है। भाजपा विरोधी दलों द्वारा दिए गए इस विशेषण में उपहास और उपेक्षा का बोध ज्यादा रहा। इसलिए पिछली सदी में भारतीय जनता पार्टी ने खुद को इस छवि से बाहर निकालने की कोशिश शुरू की। साल 2000 में दलित समुदाय से आने वाले बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का सर्वोच्च पद पर आसीन करना और उनका बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की दीक्षाभूमि नागपुर से संदेश देना बड़ा कदम था। इन कदमों के प्रतीकात्मक महत्व थे, जिसका संदेश साफ था कि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ ब्राह्मणों, बनियों, सवर्णो और शहरी वर्ग के हितों की ही रक्षक नहीं है, बल्कि वह समाज के दबे-कुचले समुदायों के हितों की भी चिंतक है।
लेकिन यह भाजपा के लिए दुर्भाग्य रहा कि बंगारू लक्ष्मण एक स्टिंग में फंस गए और दलित समुदाय का भरोसा हासिल करने की कोशिशों को बड़ा झटका लग गया। फिर भी पार्टी की तरफ से दलितों को जोड़ने की कोशिशें जारी रहीं। अमित शाह का दलितों के घर खाना खाना, उज्जैन में दलितों के साथ स्नान करना उसी रणनीति का हिस्सा रहा। यह भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी ही थी कि उसके पहले राहुल गांधी दलितों के घर जाकर खाना खाते रहे, लेकिन उनके बजाय दलितों ने भाजपा को तरजीह दी। आखिर दलित राजनीति की इतनी अहमियत क्यों हैं? एक अनुमान के मुताबिक, देश की मौजूदा आबादी का करीब 20 फीसद हिस्सा दलित है।
हालांकि, 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलित जनसंख्या 17 फीसदी है। इसी जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब 20.14 करोड़ दलित हैं। जिन्हें संसद व विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान सम्मत सीटें आरक्षित की गई हैं। लोकसभा की 543 सीटों में से 80 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। अतीत में इन सीटों पर कांग्रेस और स्थानीय दलों या सामुदायिक राजनीतिक करने वाले समूहों का कब्जा रहता रहा है। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में यह परिदृश्य बदल गया। 2001 में नाकाम रहा नागपुर संदेश नरेंद्र मोदी की अगुआई में 2014 आते-आते बदल गया।
पिछले आम चुनाव में इन 80 सीटों में से भाजपा ने 41 सीटों पर जोरदार जीत दर्ज करके दलित वोटरों पर कांग्रेस या दूसरे क्षेत्रीय दलों की पकड़ होने की अवधारणा की हवा निकाल दी। बाद में हुए मध्यप्रदेश की रतलाम लोकसभा सीट का उपचुनाव भाजपा हार गई, लेकिन उसने उत्तरप्रदेश की आरक्षित सीटों में से 76 पर जीत दर्ज हासिल करके यह साबित कर दिया कि दलितों ने उसे अपना लिया है। उत्तरप्रदेश में इस जीत के मायने इसलिए भी खास रहे कि वहां मायावती के रूप में दलितों का सबसे ताकतवर नेतृत्व है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के गैर जाटव मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी का खूब साथ दिया।
इसके बाद से दलित राजनीति को नए ढंग से साधने और दलित मतदाताओं को नए समीकरणों में साधने की कोशिश शुरू हुई। उत्तरप्रदेश में पहले भीम सेना के आंदोलन और बाद में गुजरात के ऊंझा से लेकर राजस्थान के कुछ कथित हमलों को लेकर दलित राजनीति का नया नेतृत्व उभारने की कोशिश भी हुई। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में चंद्रशेखर आजाद और गुजरात में जिग्नेश मेवानी इन्हीं कोशिशों के नतीजे हैं। इन कोशिशों की बदौलत भारतीय जनता पार्टी को उसके ही गढ़ गुजरात में कांग्रेस ने जोरदार चुनौती दी। हाल का त्रिपुरा विधानसभा चुनाव हो या फिर नगालैंड का, भारतीय जनता पार्टी को दलितों-आदिवासी वोटरों का समर्थन मिला।
इसने मोदी विरोदी विपक्ष की चिंताएं बढ़ा दी हैं। ऐसे माहौल में एससी-एसटी एक्ट में सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया और विपक्षी दलों को जैसे हथियार मिल गया। चूंकि, सीधे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना नहीं की जा सकती, लिहाजा मोदी सरकार को निशाना बनाया गया। सरकार की तरफ से फैसले पर पुनर्विचार की याचिका दायर ना करना विपक्ष के लिए बारूद बन गया, जिसमें दो अप्रैल को चिंगारी लगाई गई। इसका नतीजा सामने है। गुजरात में जोरदार चुनौती देने के बावजूद शिकस्त झेल चुकी कांग्रेस और उसके सहयोग में उतरे राजनीतिक दलों के सामने वजूद बचाने का संकट ज्यादा है।
लिहाजा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में दलित राजनीति के बहाने कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष फायदा उठाने की जोरदार कोशिश करेगा। वैसे पिछली सदी में अस्सी के दशक तक कांग्रेस के लोकप्रिय नेता रहे देवराज अर्स की लोकप्रियता और कामयाबी की कहानी में दलित मतदाताओं का समर्थन भी रहा। साल 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत में भी इस दलित मतदाताओं का सहयोग मददगार रहा। कर्नाटक के कुछ महीने बाद राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। राजस्थान में जहां 6.1 प्रतिशत दलित आबादी है, वहीं मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 21 और छत्तीसगढ़ में करीब 42 प्रतिशत है।
इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की अगर सरकारें हैं तो जाहिर है कि उनका समर्थन भारतीय जनता पार्टी को रहा है। गैर भाजपा दल इन राज्यों में भी दलित राजनीति को नए सिरे से संगठित करने की कोशिश में हैं। वैसे भी भारत बंद के दौरान हिंसा के सबसे ज्यादा आंकड़े भाजपा शासित राज्यों से आए हैं। अगर पंजाब को छोड़ दें तो गैर भाजपा शासित राज्यों में हिंसा कम हुई। चूंकि हिंसा की घटनाएं हुई हैं, इसके लिए राज्य सरकारें ही जिम्मेदार मानी जाएंगी, लेकिन भाजपा दबी जुबान से बताने से हिचक नहीं रही है कि उसके द्वारा शासित राज्यों में सियासी साजिशें की गईं, ताकि दलितों को बरगालाया जा सके।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद में हुई हिंसा ने जहां दलित वोटरों पर वर्चस्व की राजनीति बेनकाब हुई है, वहीं दलितों से जुड़े असल मुद्दे पूरी तरह हाशिए पर चले गए हैं। ऐसे में दलितों को दीर्घकालिक फायदे होने के बावजूद नुकसान ही होंगे, क्योंकि आज उनके साथ कथित तौर पर खड़े नजर आ रहे दलों का अतीत में सबसे ज्यादा शासन रहा है और अगर उन राजनीतिक दलों की शासकीय नीतियां सही रही होतीं तो दलितों को लेकर वे सवाल आज भी शायद ही मौंजू रहते, जो आजादी के पहले भी थे।

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