इन दंगों पर क्या कहें क्या न कहें


राजएक्सप्रेस,भोपाल। रामवनमी के जुलूस के बाद बंगाल, बिहार समेत कई राज्यों में हुए दंगे सरकारों की विफलता से ज्यादा स्थानीय लोगों की सोच पर सवाल उठा रहे हैं। किसी जुलूस या आयोजन में दंगा करने वालों की संख्या बेहद कम होती है, फिर भी उनके कृत्यों को बड़ा जनमानस मिल जाता है। हम यह क्यों नहीं सोचते कि कुछ लोगों की कुरूप मानसिकता ने पूरे समाज को किस हद तक गुलाम बना लिया है और हम हर हुक्म बजा रहे हैं। दंगे जब भी होते हैं उसका दुष्परिणाम (Bad Effects of Riots) हमेशा आम आदमी को भुगतना पड़ता है।
दंगे जब भी होते हैं उसका दुष्परिणाम हमेशा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। दंगे के समय ऐसा उत्तेजक माहौल बन जाता है कि कल तक बिल्कुल निश्चछल दिखने वाला इंसान भी कुछ समय के लिए इंसान नहीं रहता। उसके अंदर ऐसा सांप्रदायिक उन्माद पैदा हो जाता है कि वह क्रूर से क्रूर काम कर बैठता है। दंगे रुकने के बाद भी समुदायों के बीच विभाजन की ऐसी खाई पैदा हो जाती है, जिसको भरना आसान नहीं होता। इस समय बिहार और प. बंगाल में जो कुछ भी हो रहा है उससे हर संवेदनशील भारतीय चिंतित है।
दुर्भाग्य से हमारी राजनीति राजनीतिक लाभ के इरादे से दंगों की आग पर अपनी वाणी और व्यवहार से उत्तेजना को बढ़ाने की भूमिका अदा कर रही है। ऐसा हमेशा होता है और इस कारण हमारे यहां दंगों की सच्ची तस्वीर सामने नहीं आती। बिहार में 17 मार्च को भागलपुर से आरंभ दंगे ने धीरे-धीरे 9 जिलों को चपेट में ले लिया। बिहार लंबे समय से सांप्रदायिक दंगों से मुक्त रहा है। दो समुदायों के बीच कभी-कभी किसी कारणवश तनाव हो सकता है। यह समाज की स्वाभाविक स्थिति है किंतु समुदायों के समझदार एवं प्रभावी लोग तथा प्रशासन हस्तक्षेप कर उसे आगे नहीं बढ़ने देता।
यह प्रश्न इस समय स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया, जिससे लोग एक-दूसरे के खिलाफ उतर गए? भारत का दुर्भाग्य है कि दंगों को लेकर राजनेताओं और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग हमेशा एकपक्षीय बात करता है। इस बार भी यही हो रहा है। चाहे बिहार हो या बंगाल इनका स्वर यही है कि भाजपा और संघ दंगे करा रहा है। भारत में आजादी के पूर्व से लेकर अभी तक के दंगों पर ईमानदार काम करने वालों का निष्कर्ष है कि दंगे कभी एकपक्षीय नहीं होते। फिर उसके पीछे हमेशा कुछ शातिर या मूर्ख दिमाग अवश्य काम करता है।
दंगों के संदर्भ में जब तक कटु सच बोलने का आचरण समाज का नहीं होगा न इसके असली अपराधी पकड़े जाएंगे, न ही भविष्य में दंगे रोकने के समुचित पूवरेपाय हो सकते हैं। बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है कि दंगों के बारे सच बोलेंगे तो हमें सांप्रदायिक और गैर सेक्यूलर करार दे दिया जाएगा। इस भय से बाहर आना होगा। बहरहाल, बिहार और पश्चिम बंगाल के दंगों पर चर्चा करने वालों को यह तथ्य कभी नहीं भूलना चाहिए इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बिहार के दंगों में अभी तक एक भी व्यक्ति की मृत्यु नहीं हुई है।
इसका अर्थ हुआ कि आम आरोप के विपरीत बिहार में पुलिस प्रशासन अपना काम कर रहा है। बंगाल में स्थिति ऐसी नहीं है। बिहार में केवल पुलिस ही नहीं, रिजर्व दंगा विरोधी टीम, बीएमपी, सीआरपीएफ, एसएसबी, स्वॉट, एसटीएफ सबको लगा दिया गया। परिणाम है कि संघर्ष एक सीमा से कहीं आगे नहीं बढ़ा। तनाव अवश्य है लेकिन अब यह अनियंत्रित नहीं है। पश्चिम बंगाल में भी धीरे-धीरे स्थिति नियंत्रित हुई है, लेकिन वहां की ममता सरकार का रवैया पूरी तरह प्रश्नों के घेरे में है। केंद्र के प्रस्ताव देने के बावजूद उन्होंने केंद्रीय बलों को स्वीकार नहीं किया।
प. बंगाल की पुलिस पर यह आरोप है कि वह ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच के अनुरूप दंगों के असली अपराधियों पर कार्रवाई की बजाय एक राजनीतिक दल एवं संगठन परिवार के लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। किसी भी समुदाय को अपने राज्य या जिले में ही शरणार्थी बनकर जीना पड़े इससे बड़ी त्रसदी क्या हो सकती है। बंगाल में हिंदुओं की एक बड़ी संख्या घरबार छोड़कर शरणार्थी की तरह जी रही है। आखिर उनको घर क्यों छोड़ना पड़ा होगा? वे मीडिया को बता रहे हैं कि उनके साथ क्या-क्या हुआ?
क्या उनको झूठा मान लिया जाए और ममता बनर्जी, उनकी पार्टी के नेता तथा दूसरे दलों के नेता जो कह रहे हैं केवल उसे सच मान लिया जाए? ममता का राज्य जलता रहा और वो दिल्ली में मोदी विरोधी राजनीतिक मोर्चा बनाने की कवायद कर रही थीं। दोनों जगह मुख्यत: रामनवमी के जुलूस को लेकर दंगा हुआ है। कोई भी धार्मिक जुलूस हो उसमें किसी तरह का उत्तेजक नारा लगाना या ऐसी कोई हरकत करना स्वीकार्य नहीं हो सकता। ऐसे हर जुलूस में पुलिस साथ रहती है। इसलिए उसका दायित्व बनता है कि ऐसी स्थिति होने पर जुलूस का नेतृत्व करने वालों को नियंत्रित करने के लिए बोले और न हो तो उसे रोक दे।
दोनों राज्यों में आरोप है कि कुछ जुलूस में ऐसे नारे लगे, जिससे उत्तेजना फैली। पता नहीं सच क्या है। आसनसोल में कहा जा रहा है कि किसी ने मस्जिद पर तिरंगा झंडा लगा दिया। जबरन तिरंगा लमाना भी उचित नहीं है। किंतु किसी ने ऐसा कर भी दिया तो उसके कारण जुलूस पर हमला करने का आधार नहीं बन जाता। अगर हम एक-दूसरे के धार्मिक जुलूस पर हमला करने लगेंगे तो फिर देश चलेगा कैसे? भारतीय संस्कृति की मूल पहचान सहिष्णुता है। किंतु यह एकपक्षीय नहीं हो सकता। बेशक, आसनसोल की एक मस्जिद के इमाम ने अपने बेटे के मरने के बावजूद जिस तरह उत्तेजित लोगों को रोका उसकी प्रशंसा होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि आपने यदि बदले की कार्रवाई की तो मैं शहर छोड़ दूंगा और इसका असर हुआ। अपने बेटे को खोने के बावजूद ऐसा व्यवहार करना सामान्य बात नहीं है। हालांकि 10वीं में पढ़ने वाला उनका बेटा लापता हो गया था और बाद में उसका शव मिला। इसलिए यह छानबीन का विषय है कि हत्या कैसे हुई? जुलूस के साथ ऐसा जिन्होंने किया उन्हें असामाजिक तत्व ही माना जा सकता है। गोली और बम का उपयोग तो अपराधी ही कर सकते हैं। जब एक बड़ा समूह जुलूस में होता है उसका मनोविज्ञान बिल्कुल अलग होता है।
छोटी घटना से भी उत्तेजना पैदा हो जाती है और संख्याबल पर ये प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई करने लगते हैं। बदमाशी करने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग होते हैं और सजा पूरे समाज को भुगतना पड़ता है। प. बंगाल से खबरें जुलूस द्वारा हमले की जगह जुलूस पर और एक समुदाय पर हमले की है। वहां की पुलिस ने निष्पक्ष भूमिका नहीं निभाया है। बिहार में भारी संख्या में लोगों की गिरफ्तारी हुई है, जिसमें भाजपा के साथ कांग्रेस और राजद के लोग भी हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनका किसी संगठन से लेना-देना नहीं। भागलपुर में स्थानीय कांग्रेस विधायक पर आरोप है कि उन्होंने पटना में रहते हुए फोन से कुछ लोगों को जुलूस को सफल न होने देने के लिए उकसाया।
केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अरिजित चौबे तो जेल चले गए लेकिन कांग्रेस के विधायक के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हुई। अगर आरोप है तो उसकी जांच होनी चाहिए। किसी को दंगा करना हो तो वह बाजाब्ता जुलूस का नेतृत्व करते हुए ऐसा करेगा यह बात गले नहीं उतरती। बावजूद अरिजीत पर आरोप हैं तो कानून को अपना काम करने देना चाहिए। भाजपा बिहार में सरकार का भाग है। यह समझना मुश्किल है कि कोई पार्टी अपनी ही सरकार को बदनाम करने या स्वयं कानून व्यवस्था की स्थिति को बिगाड़ने की कोशिश क्यों करेगी? हां, दंगों के पीछे कुछ तत्व जरूर हैं।
मसलन, नवादा में मूर्ति तोड़ने वाला किसी भी समुदाय का हो सकता है। रोसड़ा में जुलूस पर चप्पल कहां से आ गया यह भी जानकारी नहीं है। जुलूसों को रोकने की कोशिश करने वाले या उस पर पत्थर फेंकने वाले कौन थे? इन सबकी ठीक प्रकार से जांच हो और सच्चाई देश के सामने रखी जानी चाहिए। दंगों की छानबीन की रिपोर्ट छिपा ली जाती है। यह नहीं होना चाहिए। किंतु मूल बात है कि दोनों समुदाय को साथ रहना है। सांप्रदायिक और असामाजिक तत्वों से समुदाय को बचाना दोनों पक्षों के विवेकशील लोगों का दायित्व बन जाता है। यह दायित्व हर हाल में निभाना चाहिए।

अवधेश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार)

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