कर्नाटक में किस करवट बैठेगा ऊंट


राजएक्सप्रेस, भोपाल। कर्नाटक में चुनाव (Karnataka Assembly Elections Analysis)का ऐलान होने के साथ ही भाजपा-कांग्रेस ने समीकरण अपने पक्ष में करने शुरू कर दिए हैं। भाजपा को सिद्धारमैया के अति क्षेत्रवाद की राजनीति से तो मुकाबला करना ही है, सिद्धारमैया ने जातीय समीकरण को साधने की जो कोशिश की है उससे भी निपटना है। सिद्धारमैया क्षेत्रवादी भावनाओं को उभारकर अपने विफलताओं को ढंकना चाहते हैं। तो भाजपा ने लिंगायत वोट के लिए उसके प्रमुख मठों का दौरा कर संतों से आशीर्वाद लेने की शुरुआत कर दी है।
कर्नाटक (Karnataka) विधानसभा चुनाव का राजनीतिक महत्व आसानी से समझ में आने वाला है। अभी कांग्रेस की सिर्फ चार सरकारें- कर्नाटक, पंजाब, मिजोरम और पुडुचेरी (केंद्रशासित) हैं। इसलिए उसकी हर कोशिश 2013 में मिली विजय को बरकरार रखने की होगी। कांग्रेस को पता है कि कर्नाटक खोने के राजनीतिक मायने कितने घातक होंगे। न केवल दक्षिण का अंतिम राज्य उसके हाथों से निकल जाएगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा और नरेंद्र मोदी विरोधी विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने की उसकी मुहिम कमजोर पड़ जाएगी। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद यह चौथा विधानसभा चुनाव है।
इसके पूर्व तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा है और मेघालय की उसकी सरकार तक चली गई। जाहिर है, यह राहुल गांधी की छवि के लिए भी काफी मायने रखता है। दूसरी ओर भाजपा के लिए भी यह राज्य कम महत्वपूर्ण नहीं है। उत्तरप्रदेश के दो उपचुनाव में पराजय के बाद उसे यह साबित करना है कि उसका विजय रथ कमजोर नहीं पड़ा है। उसे पता है कि कर्नाटक में उसकी पराजय के बाद विपक्ष की एकता की कोशिशों में ज्यादा उत्साह आएगा तथा राजग के अंदर भी असंतोष बढ़ सकता है। साथ ही इसके बाद होने वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव पर भी इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा।
कर्नाटक में जनता दल-सेक्यूलर भी एक शक्ति रही है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा तथा उनके पुत्र एचडी कुमारस्वामी के लिए भी यह अस्तित्व बचाने का प्रश्न है। वर्ष 2013 में केंद्र की यूपीए सरकार के खिलाफ वातावरण होने के बावजूद कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को विजय मिली थी। इसका कारण कांग्रेस की लोकप्रियता नहीं बल्कि भाजपा की विफलता थी। भाजपा के नेताओं के बीच आपसी कलह इतनी थी कि आधा दर्जन बार सरकार गिरने का संकट पैदा हुआ। उसके कार्यकाल में तीन-तीन मुख्यमंत्री बदल गए। कर्नाटक के लोगों ने 2004 से 2008 के बीच राजनीतिक अस्थिरता को देखा था, इसलिए वे स्थिर सरकार चाहते थे।
उन्हें पता था कि आपसी संघर्ष में उलझी पार्टी स्थिरता नहीं दे सकती। जनता दल-सेक्यूलर अपनी बदौलत सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था इसलिए लोगों ने कांग्रेस को समर्थन दिया था। भाजपा के सबसे कद्दावर नेता वीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनता पक्ष के नाम से अलग पार्टी बना ली थी। भाजपा के एक और प्रमुख नेता बी. श्रीरामुलू बेल्लारी क्षेत्र में अलग पार्टी बनाकर लड़ रहे थे। भाजपा के मतों में 2008 की तुलना में 13.9 प्रतिशत की भारी कमी आई। उसे केवल 19.89 प्रतिशत मत मिले। जनता दल-सेक्यूलर को उससे ज्यादा 20.19 प्रतिशत मत मिला।
येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष ने 9.79 तथा वी. श्रीरामुलू की बदवारा श्रमिकरा रैयतारा या बीएसआर कांग्रेस ने भी करीब 3.4 प्रतिशत मत प्राप्त किया था। इस तरह करीब 13 प्रतिशत मत जो भाजपा के खाते में जाने चाहिए थे वे कट गए। किसी भी पार्टी में विभाजन होता है तो उसके समर्थक निराश और नाराज होते हैं और उनका मत विद्रोहियों के साथ विरोधी पार्टी को जाता ही है। इस बार भाजपा के लिए वैसी स्थिति नहीं है। भाजपा की कमान हाथ में आते ही नरेंद्र मोदी ने वीएस येदियुरप्पा सहित उनके साथ बाहर गए ज्यादातर नेताओं को पार्टी में शामिल किया। लोकसभा चुनाव में इसके परिणाम साफ दिखाई दिए।
उसे न केवल 28 में से 17 सीटें मिलीं, बल्कि उसे मतों में विधानसभा की तुलना में 22 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई। उसे कुल 43 प्रतिशत मत मिले। इस बार भाजपा में पूरी एकता है। येदियुरप्पा को भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। कर्नाटक के बाहर उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की चाहे जितनी चर्चा हो, लेकिन वहां उनकी छवि एक बेहतर प्रशासक तथा ईमानदार व्यक्ति की है। वैसे भी वे सारे आरोपों से बरी हो चुके हैं। जिस समय उन पर आरोप थे उस समय भी उन्होंने अलग पार्टी बनाकर उतना ज्यादा मत काटा, जो इस बात का प्रमाण था कि उनका अपना एक निजी जनाधार है। उसमें पार्टी का जनाधार फिर से मिल जाए तो स्थिति बदल सकती है।
कांग्रेस को इसका अहसास है कि एकजुट भाजपा से लड़ना आसान नहीं है। सिद्धारमैया समाजवादी खेमे से आते हैं। कांग्रेस पार्टी के नेताओं की राष्ट्रीय सोच से अलग उनके अंदर क्षेत्रवाद की सोच है, जिसे वे लगातार मूर्त रूप दे रहे हैं। एक समय पार्टी में उनके खिलाफ विद्रोह था और कई नेताओं ने भाजपा का दामन थामा। पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री एसएम कृष्णा जैसे कद्दावर नेता ने उनके रवैये से निराश होकर पार्टी छोड़ दी। वे आज भाजपा में हैं। ऐसा राज्यभर में हुआ। इन सबको देखते हुए सिद्धारमैया ने क्षेत्रवाद को न केवल हवा दी, बल्कि सरकारी स्तर पर कई निर्णय कर दिया।
उन्होंने कन्नड़ स्वाभिमान का नारा लगाते हुए प्रदेश के अलग झंडे की आवाज उठाई। उसके लिए समिति बनाई तथा उससे मनमाफिक रिपोर्ट मंगवाकर अलग झंडे को मंजूरी दी। उसके बाद कन्नड़ भाषा का प्रश्न उठाया। हिंदी विरोध को पूरी तरह हवा दी। कन्नड़ को उन्होंने सभी विद्यालयों के लिए अनिवार्य कर दिया। मेट्रो से लेकर सरकारी विभागों पर लगे हिंदी नामों की पट्टिका हटा दी गई। उसके बाद उन्होंने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देकर उसका प्रस्ताव केंद्र के पास भेज दिया। येदियुरप्पा लिंगायत हैं और उनके प्रभाव से लिंगायतों के मत का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को मिलता रहा है। सिद्धारमैया के इन कदमों का समर्थन नहीं किया जा सकता।
राजनीति के लिए इस तरह संकीर्ण क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करना तथा हिंदू धर्म के अंदर विभाजन का बीज बोना भविष्य की दृष्टि से खतरनाक कदम है। किंतु इन कदमों से एक वर्ग की भावनाएं तो तुष्ट होती ही है। वैसे कर्नाटक के लोग हमेशा से राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ चलने के अभ्यस्त रहे हैं। ऐसा लगता है कि लगातार पराजय से पस्त कांग्रेस किसी तरह विजय चाहती है। इसलिए केंद्रीय नेतृत्व ने सिद्धारमैया को बिल्कुल खुली छूट दे दी है। एक राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस वहां क्षेत्रीय पार्टी के चरित्र में चुनाव लड़ रही है। प्रदेश की तीसरी शक्ति और क्षेत्रीय पार्टी जद-एस का एक निश्चित जनाधार रहा है।
लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे पहली बार धक्का लगा। उसे केवल 11 प्रतिशत मत मिले। सिद्धारमैया ने पार्टी सहित उसके जनाधार में सेंध लगाने के जितने कदम हो सकते हैं उठाए हैं। इसलिए वह अपने परंपरागत गढ़ ओल्ड मैसूर तथा हैदराबाद कर्नाटक में भी बेहतर कर पाएगी इसकी संभावना कम लगती है। इस कारण मुख्य मुकाबला भाजपा एवं कांग्रेस में होगा। हां, जद-एस कुछ क्षेत्रों में लड़ाई को त्रिकोणीय बनाएगी। जातीय समीकरण को तोड़ने के लिए दलितों से लेकर अन्य समुदायों के संतों के साथ भी भाजपा संपर्क कर रही है। इस तरह मुकाबला बिल्कुल दिलचस्प हो गया है।

Comments

Popular posts from this blog

झंडे की क्षेत्रीय अस्मिता और अखंडता

देश में जलाशयों की स्थिति चिंतनीय, सरकार पानी की बर्बादी रोकने की दिशा में कानून बना रही है

नेपाल PM शेर बहादुर देउबा का भारत आना रिश्तों में नए दौर की शुरुआत