स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट


राजएक्सप्रेस, भोपाल। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा (Plight of Government Hospitals) का एक और नमूना सामने आया है। कानपुर के सबसे बड़े अस्पताल के आईसीयू का एसी खराब होने से पांच मरीजों की मौत हो गई। मगर जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है। यह स्थिति देश की बदतर स्वास्थ्य सेवा को इंगित करती है। यह समस्या इसलिए है, क्योंकि कोई भी जवाबदारी लेने को तैयार नहीं है। मगर अब इस परिपाटी को खत्म करना होगा और अस्पतालों को मरीजों के जीने लायक बनाना होगा।
बीमारी से निजात पाने अस्पताल जा रहे मरीजों की जान कब लापरवाही लील ले, किसी को पता नहीं। देश के अस्पतालों में एक के बाद एक किस्से सामने आ रहे हैं, मगर हर कोई बदइंतजामी के सामने बौना नजर आ रहा है। अब कानपुर के सबसे बड़े अस्पताल में एसी खराब होने से पांच मरीजों की मौत हो गई। ये सभी मरीज आईसीयू में भर्ती थे। जब आईसीयू की यह हालत है, तो दूसरे वार्डो में बदइंतजामी और लापरवाही का पैमाना हम आसानी से समझ सकते हैं। दरअसल, किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे पहला बुनियादी अधिकार होता है, लेकिन भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोजाना हजारों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे हैं। इसका खुलासा शोध एजेंसी लैंसेट ने अपने ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज नामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता और पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर हैं।
विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है! ऐसे हालातों में निजी अस्पतालों का खुलाव तो कुकरमुत्ते की भांति सर्वत्र देखने को मिल रहा है। इन अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना हैं। लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा है कि मरीज को अपना घर, जमीन व खेत गिरवी रखने के बाद भी बैंक से लोन लेने की तकलीफ उठानी पड़ती है। अभी कुछ महीनों पहले घटित गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। जहां डेंगू पीड़ित सात साल की बच्ची के करीब 15 दिनों तक चले इलाज का बिल 16 लाख बताया गया। इसके बाद भी बच्ची की जान नहीं बच सकी। सोचनीय है क्या भारत में विकास का पैमाना यह है कि एक गरीब को अपनी बेटी का इलाज करवाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़े। अपना सब कुछ गंवाने के बाद भी बेटी के प्राण न बच सके। ऐसे में उन अभिभावकों पर क्या गुजरती होगी?
दरअसल हमारे देश का संविधान समस्त नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार तो देता है लेकिन, जमीनी हकीकत बिलकुल इसके विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी एवं उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य जैसी अतिमहत्वपूर्ण सेवाएं बिना किसी विजन व नीति के चल रही है। ऐसे हालातों मे गरीब के लिए इलाज करवाना अपनी पहुंच से बाहर होता जा रहा है। गौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है। 2015-16 और 2016-17 में स्वास्थ्य बजट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रलय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रलय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों से भी हम पीछे हैं, यह शर्म की बात है।
देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है। दीगर, ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। यह भी सच है कि भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया हैं। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी व कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए रोज का काम बन चुका है। यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में आज भी आर्थिक पिछड़ेपन के लोग शिकार हैं। वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी अर्नस्ट एंड यंग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं।
इन हालातों में भारत में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है। पिछले एक दशक में प्रमुख स्वास्थ्य संकेतकों पर भारत की प्रगति और कई कमियों को अध्ययन में दस्तावेज किया गया है। यह शोध स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ संरचनात्मक समस्याओं की पहचान करता है और साथ ही पिछले विशेषज्ञ समूहों की बातों को साबित करता है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली के लिए एक नई क्रांतिकारी दृष्टिकोण की जरूरत है। भारत को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व जरूरतमंद सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद की दर में बढ़ोतरी करनी होगी। सरकार को निशुल्क दवाइयों के नाम पर केवल खानापूर्ति करने से बाज आना होगा।
साथ ही, यह ध्यान रखना होगा कि एंबुलेंस के अभाव में किसी मरीज को प्राण नहीं गंवाना पड़े। इसके लिए मजबूत जनबल की जरूरत है। जनता को ऐसे प्रतिनिधि को चुनना होगा, जो स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाओं को आमजन तक पहुंचाने का वादा करे। भारत की गिनती दुनिया के उन देशों में होती है जहां स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बहुत कम होता है। भारत में यह डेढ़ फीसद से भी कम है, जबकि चीन में तीन फीसद से ज्यादा। इसलिए भारत में सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था संसाधनों और कर्मियों की तंगी से जूझती रहती है। जननी सुरक्षा व ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाएं भी पर्याप्त आवंटन न मिलने का दंश झेलती रहती हैं।

देवेंद्र सुथार (स्वतंत्र टिप्पणीकार)

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