चार साल की अच्छाइयों पर ध्यान दीजिए


राजएक्सप्रेस, भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार साल के कार्यकाल में क्या किया और क्या नहीं, यह बहस का विषय जरूर है। मगर इस दौरान कई ऐसी भी योजनाएं हैं, जो समाज में बड़े बदलाव का वाहक बनीं और भारतीय संस्कृति को फिर से जीवित करने का जरिया। स्वच्छता मिशन, उज्ज्वला योजना व राष्ट्रीय राजमार्गो के विकास को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उम्मीद है कि मोदी सरकार (Modi Government)अपने इस मिशन को जारी रखेगी और आगामी वर्षो में हमें बदलाव दिखेगा।
आम चुनाव की उल्टी गिनती का साल शुरू हो गया है। मोदी सरकार के चार साल बीतने के बाद अपने लोकतांत्रिक समाज में विपक्ष की ओर से सवाल नहीं उठते तो ही हैरत होती। इसलिए राहुल गांधी हों या मायावती या तेजस्वी या फिर अखिलेश या फिर 2019 में अजरुन की तरह सत्ता की आंख पर निशाना गड़ाए बैठीं ममता बनर्जी सबने सरकार को नाकाम बताया है। अव्वल तो इन सुरों में मीडिया को विवेकी ढंग से सुर मिलाना चाहिए था, लेकिन उसने नीर-क्षीर को किनारे रख दिया है। लेकिन मोदी सरकार की कम से कम दो योजनाएं ऐसी हैं, जिन्होंने ना सिर्फ गेम चेंजर, बल्कि सामाजिक बदलाव की भूमिका निभाई है। स्वच्छता का मामला सीधे-सीधे संस्कृति और परंपरा से जुड़ा हुआ है। यूरोप आज भले ही साफ नजर आ रहा है। लेकिन कुछ सौ साल पहले तक यूरोप में स्वच्छता की संस्कृति कैसी थी, इस पर सोपान जोशी ने शोधपरक किताब लिखी है, जल, थल, मल। इस पुस्तक से गुजरते हुए पता चलता है कि यूरोप कुछ सौ साल पहले तक बजबजाती गंदगी की संस्कृति से लबरेज था। जबकि उसकी तुलना में भारतीय समाज स्वच्छता की अहमियत को समझता था।
भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर आदिवासियों के गांवों में जाकर देखिए। वहां फूस और मिट्टी की झोपड़ियों में भी जो स्वच्छता दिखेगी, वह आपका मन मोह लेगी। यह शोध का विषय है कि आखिर नगरीय भारतीय समाज में स्वच्छता की सार्वजनिक अवधारणा कब और कैसे बदली। लेकिन यह सच है कि भारतीय समाज में व्यक्तिगत स्वच्छता को लेकर कोई सवाल नहीं रहा है, लेकिन सार्वजनिक स्वच्छता के मामले में भारतीय समाज में एक खास तरह का पिछड़ापन जरूर रहा। अपने घर को साफ करना और घर के कूड़े को गली में फेंकने का रिवाज भारतीय समाज में रहा है और एक हद तक प्रौढ़ मानसिकता वाले लोगों में अब भी ऐसा है। गांधी जी ने आजादी से कहीं ज्यादा जरूरी देश की स्वच्छता को बताया था। गांधी मार्ग में स्वच्छता इसीलिए एक महत्वपूर्ण उपादान है। गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ही पहले राजनेता हैं, जिन्होंने स्वच्छता को राष्ट्रीय अभियान बनाने का संकल्प लिया। 15 अगस्त 2014 को स्वतंत्रता दिवस के पहले ही संबोधन में जिस तरह उन्होंने देश को खुले में शौच मुक्त करने के अभियान की रूपरेखा पेश की, वह हैरत में डालने वाली थी।
लालकिले की प्राचीर का इस्तेमाल प्रधानमंत्री देशभक्ति का पाठ पढ़ाने और पाकिस्तान को चेतावनी देने के लिए ही ज्यादा इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन मोदी ने नया कदम उठाया। सुलभ नाम से देश में स्वच्छता की संस्कृति को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभा चुके बिंदेश्वर पाठक मोदी के इस कदम को क्रांतिकारी बताते नहीं थकते हैं। संस्कृति में बदलाव का असर बरसों बाद दिखता है। क्योंकि यह सीधे-सीधे सोच के बदलाव का मसला है। पुरानी पीढ़ी की सोच इतनी आसानी से नहीं बदलती, इसीलिए स्वच्छता अभियान की पूरी कामयाबी नजर नहीं आ रही। लेकिन बाद की पीढ़ियों ने इसे लेकर सचेतन रुख जरूर अख्तियार किया है। अंग्रेजों ने हमारे यहां जिस नौकरशाही तंत्र का विकास किया है, जिसे लौह आवरण कहा जाता है, जिस पर योजनाओं को ईमानदारी से लागू करने की बड़ी जिम्मेदारी है, उसके लिए स्वच्छता अभियान निश्चित तौर पर फोटो खींचने-उतरवाने का जरिया बन गया है। मोदी सरकार को इस पर काबू पाने के लिए कदम उठाने होंगे। सरकारी तंत्र में तो आलोचनाएं भी होने लगी हैं कि मोदी ने उन्हें झाड़ू पकड़ने के लिए मजबूर कर दिया। बहरहाल करीब 68 फीसद ग्रामीण जनसंख्या और गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले करीब 40 करोड़ लोगों वाले देश में यह संकल्प चुनौतीपूर्ण है। देश में करीब छह लाख 40 हजार गांव हैं। मोदी सरकार का दावा है कि चार साल के कार्यकाल में तीन लाख 60 हजार से ज्यादा गांवों के साथ ही 17 केंद्रशासित प्रदेश एवं राज्य खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। 2014 में स्वच्छता कवरेज का जो आंकड़ा 38.7 प्रतिशत था, वह बढ़कर 83.17 प्रतिशत हो गया है। इन चार सालों में करीब सवा सात करोड़ शौचालय बनाए गए हैं।
मोदी सरकार की गेम चेंजर योजना उज्‍जवला है। 2016 के मजदूर दिवस को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से शुरू उज्‍जवला योजना इस तथ्य का गवाह है कि ईमानदारी से पूरी तरह किसी योजना को लागू किया जा सकता है। महिलाओं की आधी जिंदगी चूल्हे के धुएं में अपने फेफड़ों को जलाते गुजरती रही है। उसकी आंखों पर रसोई का धुआं कहर बरपाता रहा है। इन महिलाओं के दर्द को मोदी सरकार ने समझा और उज्‍जवला योजना की शुरुआत की। शुरू में इस योजना के तहत मोदी सरकार ने तीन साल में पांच करोड़ गैस कनेक्शन देने का लक्ष्य रखा था, जिनमें से 3.8 करोड़ कनेक्शन दिए जा चुके हैं। जिसे अब पांच से बढ़ाकर साल 2020 तक 8 करोड़ कनेक्शन कर दिया गया है। योजना को ईमानदारी से लागू करने का ही असर है कि महिलाओं की नजर में मोदी ज्यादा भरोसेमंद नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली जीत में बड़ा हाथ महिलाओं का भी था। आज भाजपा जगह-जगह जीत रही है तो उसके पीछे महिलाओं की भूमिका भी बड़ी है। इसके लिए सरकार ने शुरू में तो पैसे का इंतजाम किया, लेकिन बाद में उसने समर्थ लोगों से गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील की। अब तक डेढ़ करोड़ लोग अपनी गैस सब्सिडी छोड़ चुके हैं। सरकार का दावा है कि इससे बची रकम से कमजोर और गरीब महिलाओं को गैस कनेक्शन दिया जा रहा है। हालांकि इस योजना की एक खामी यह है कि गरीब महिलाओं के पास बाद में हमेशा गैस भरवाने का पैसा नहीं रहता। सरकार को इसकी तरफ भी ध्यान देना होगा।
केंद्र सरकार की एक और बड़ी योजना कामयाबी के शिखर छू रही है। आज देशभर में कहीं जाना रेलमार्ग से भले ही कठिन हो, सड़क मार्ग से बेहद आसान हो गया है। अब देश में राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क का विस्तार तेजी हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से पहले जहां रोजाना 12 किलोमीटर राष्टीय राजमार्ग बन रहे थे, वहीं अब रोजाना 27 किलोमीटर राजमार्ग बन रहे हैं। राजमार्ग मंत्रालय संभालने वाले नितिन गडकरी की योजना इसके लिए रोजाना 40 किलोमीटर का लक्ष्य तय करना है। उनका मानना है कि लक्ष्य बड़ा होगा तो असफल होने पर भी परिणाम बड़े निकलेंगे। इसी तरह ग्रामीण सड़कों का भी लगातार विस्तार हुआ है। भाजपा की सरकार बनने से पहले तक जहां 52 प्रतिशत गांव ही बारहमासी सड़कों से जुड़े थे, अब उनकी संख्या 82 प्रतिशत हो गई है। जाहिर है कि इससे बुनियादी संरचना का विकास हो रहा है। इससे गांवों तक परिवहन बढ़ रहा है, गांवों में होने वाली उपज का परिवहन बढ़ रहा है। हालांकि गांवों तक खरीदारों की पहुंच वैसी नहीं बढ़ी है, जैसी उम्मीद की जा रही थी। इसलिए इस पर ध्यान देना होगा।

उमेश चतुर्वेदी (वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार)

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