देश में जलाशयों की स्थिति चिंतनीय, सरकार पानी की बर्बादी रोकने की दिशा में कानून बना रही है




महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं। लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य में ज्ञान एक पशु से अधिक नहीं था तब भी मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें प्रकृति से ही प्राप्त करता था। आज हम विज्ञान की ऊंचाइयों को छू रहे हैं तब भी हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से ही होती है। प्रकृति का मनुष्य जीवन में इतना महत्व होते हुए भी हम लालच के कारण संतुलन बिगाड़ रहे हैं। हाल ही में खबर आई है कि देश के 91 बड़े जलाशयों के जलस्तर में एक हफ्ते में ही दो फीसदी की गिरावट आ गई। यानी जो 64 फीसदी था एक हफ्ते में 62 फीसदी रह गया जबकि पिछले साल इन जलाशयों में जलस्तर 96 फीसदी था। बढ़ती आबादी, सिंचाई के साथ तेज होते औद्योगीकरण की वजह से भूमिगत जल का दोहन बढ़ा है और इसका नतीजा यह हुआ है कि विभिन्न राज्यों में जलाशयों का जलस्तर घट रहा है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक, साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 फीसदी पानी धरती के भीतर रिचार्ज के लिए जाना चाहिए। उसी स्थिति में बिना हिमनद वाली नदियों और जलस्त्रोतों में लगातार पानी रुकेगा, लेकिन कहा जाता है कि कुल बारिश का औसतन 13 फीसदी जल ही धरती के भीतर जमा हो रहा है। ऐसे में अगर जल संरक्षण और उसके जरिए भूमिगत जलस्तर को रिचार्ज करने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किए गए तो वह दिन दूर नहीं जब देश की दो तिहाई आबादी को प्यासा रहने पर मजबूर होना पड़ेगा।
गौरतलब है कि 16 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में हालात तेजी से गंभीर हो रहे हैं। जरूरत से ज्यादा पानी के दोहन के चलते ही देश के विभिन्न राज्यों में जलसंकट गहराया है। राजधानी दिल्ली में भी भूमिगत जल का दोहन बेतहाशा बढ़ा है। यह भी कहा जाता है कि देश के ज्यादातर इलाकों में जलस्तर एक मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रहा है। चिंता की बात यह भी है कि पानी की गुणवत्ता भी खराब हो रही है। केंद्र सरकार के आंकड़ों की मानें तो सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा 91 फीसदी भूमिगत जल का दोहन किया जाता है। जल का सबसे ज्यादा दोहन पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में किया जाता है। पंजाब में तो भूमिगत जल का 98 फीसदी सिंचाई में इस्तेमाल होता है। हरियाणा में 94.5 फीसदी तथा राजस्थान में यह 88.4 फीसदी है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार, बेंगलुरु में जलस्तर इसी दर से घटता रहा तो एक दशक बाद पूरे शहर को कहीं और बसाना पड़ सकता है। कुछ वर्ष पूर्व जमीन के लगभग 30 फीट पर पानी मिलने वाले बेंगलुरु में अब 1050 फीट तक खुदाई करने पर पानी मिल रहा है। हाल ही में एक किसान ने कहा कि पांच साल पहले तक वह नौ एकड़ जमीन पर मूंगफली उगाता था, लेकिन अब सिर्फ पांच एकड़ में ही उगा पाता है। किसानों का कहना है कि यही हालत बने रहे तो अगले पांच सालों में शायद कोई पैदावार न हो। पंजाब में पानी का दोहन इतने बड़े पैमाने पर किया जाता है कि वर्ष 1986 में वहां ट्यूबवेल की संख्या 55 हजार थी, जो अब 25 लाख के ऊपर पहुंच चुकी है। पंजाब में 12 हजार गांव हैं, जिसमें 11 हजार 858 गांवों में पानी की समस्या है।
पिछले साल महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा के लातूर जिले में पानी ट्रेन से भेजा गया था। ट्रेन में 10 टैंकर लगे थे। हर टैंकर में करीब 50 हजार लीटर पानी भरा था। फिर भी इससे कोई सबक नहीं सीखा गया। जल संकट से निपटने के लिए सबसे जरूरी है बारिश का पानी बचाना। हम हर घर की छतों का पानी बचाकर भू-जलस्तर बढ़ा सकते हैं। इजरायल, सिंगापुर, चीन तथा ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग पर काफी काम किया जा रहा है। इस तकनीक के जरिए छत के पानी को हैंडपंप, बोरवेल या कुंए के माध्यम से भूगर्भ में डाला जा सकता है। रेनवॉटर हार्वेस्टिंग में सबसे आसान दो तरीके हैं। एक बारिश के पानी को छत पर एकत्र कर गड्ढे या खाई के जरिए सीधे जमीन के भीतर उतारना तथा दूसरा छत के पानी को किसी टैंक में एकत्र करके सीधा उपयोग करना। एक वर्षाकाल में छोटी-सी छत से लगभग एक लाख लीटर पानी जमीन के भीतर पहुंचाया जा सकता है। जल संरक्षण विश्व की सवरेपरि प्राथमिकताओं में होना चाहिए। जल संरक्षण हमें घर में, घर के बाहर, बाग-बगीचों, खेत-खलिहान हर जगह करना चाहिए। पहले गांवों में कच्चे घर होते थे। घर के आगे-पीछे काफी जगह होती थी। घरों में ही सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि बारिश का पानी नीचे धरती में जाता था। यानी भूजल का स्तर ऊपर आता था। अब गांव हो या शहर घरों के आगे-पीछे की खाली जगह भी पक्की बन गई है। नतीजतन, धरती का पेट नहीं भरता।
विचारणीय है कि देश के हर छोटे-बड़े नगर और कस्बे में सर्विस सेंटरों पर दो पहिया एवं चार पहिया वाहन धोने के लिए 300 से 500 लीटर पानी का अपव्यय होता है। वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अमेरिका, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया आदि देशों ने कानून बनाकर वाहन धुलाई में होने वाली जल की बर्बादी को रोका है। एक गिलास आरओ वाटर तैयार करने में तीन गिलास पानी वेस्ट होता है। इसलिए गिलास में उतना ही पानी लें जितना आपको पीना हो। छतों की टंकियां ओवरफ्लो होकर हजारों लीटर पानी बहा देती हैं। यह दृश्य आम है। इन्हें भी नजरअंदाज न करें। पानी की जरूरत को कम करने के लिए औद्योगिक क्षेत्रों में आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए। यदि कहा जाए कि देश में इस वक्त पानी का आपातकाल है, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। केंद्र सरकार के मुताबिक, 10 राज्यों के 256 जिले सूखाग्रस्त हैं और तकरीबन 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, अगले कुछ वर्षो में स्थिति और बिगड़ेगी। इसके लिए गंभीरता से पानी बचाने के तरीकों पर अमल करना जरूरी है। प्राकृतिक जल स्त्रोतों का संरक्षण व संवर्धन पारंपरिक जल संरक्षण उपायों को सहेजना, जल की बर्बादी रोकना, वर्षा के जल का भंडारण, जल स्त्रोतों को जन चेतना से दूषित होने से बचाना कम से कम पानी से सिंचाई तथा फसल उत्पाद तकनीक को प्रयोग में लाना, दूषित पानी को रिसाइकिल कर प्रयोग में लाना कृषि के लिए रासायनिक खादों तथा पैप्टीसाइड कैमिकल के प्रयोग पर अंकुश लगाना इत्यादि ऐसे उपाय हैं, जिनसे पानी की कमी को कम किया जा सकता है।
सरकार एक कानून बनाने पर काम कर रही है, जिसमें देश में किसी को पानी के लिए तरसना न पड़े। इस कानून में 25 लीटर तक मुफ्त पानी हर व्यक्ति को दिए जाने का प्रावधान है तथा पानी की बर्बादी को रोकने के लिए कड़े प्रावधान भी हैं। मसलन गैर जरूरी कामों के लिए ट्रीटेड वॉटर का ही इस्तेमाल करना होगा। फैक्ट्रियों में पानी के इस्तेमाल पर टैक्स लग सकता है। फैक्ट्री की वजह से पानी दूषित होता है तो इसकी सफाई की जिम्मेदारी भी फैक्ट्री मालिक की ही होगी। नए कानून के प्रस्ताव के तहत खेती में एक तय सीमा से ज्यादा पानी इस्तेमाल करने पर इसकी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। हर किसी को पानी का अधिकार तभी मिल सकता है जब पानी की बर्बादी रोकी जाए। इसलिए इस कानून के जरिए जहां सरकार एक तरफ हर किसी की प्यास बुझाना चाहती है वहीं दूसरी तरफ पानी की बर्बादी करने वालों के खिलाफ कड़े कदम भी उठाना चाहती है। पानी को लेकर देश में जो अवधारणा है, उसे तोड़कर ही सफलता पाई जा सकती है।

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