इन दंगों पर क्या कहें क्या न कहें
राजएक्सप्रेस,भोपाल। रामवनमी के जुलूस के बाद बंगाल, बिहार समेत कई राज्यों में हुए दंगे सरकारों की विफलता से ज्यादा स्थानीय लोगों की सोच पर सवाल उठा रहे हैं। किसी जुलूस या आयोजन में दंगा करने वालों की संख्या बेहद कम होती है, फिर भी उनके कृत्यों को बड़ा जनमानस मिल जाता है। हम यह क्यों नहीं सोचते कि कुछ लोगों की कुरूप मानसिकता ने पूरे समाज को किस हद तक गुलाम बना लिया है और हम हर हुक्म बजा रहे हैं। दंगे जब भी होते हैं उसका दुष्परिणाम (Bad Effects of Riots) हमेशा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। दंगे जब भी होते हैं उसका दुष्परिणाम हमेशा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। दंगे के समय ऐसा उत्तेजक माहौल बन जाता है कि कल तक बिल्कुल निश्चछल दिखने वाला इंसान भी कुछ समय के लिए इंसान नहीं रहता। उसके अंदर ऐसा सांप्रदायिक उन्माद पैदा हो जाता है कि वह क्रूर से क्रूर काम कर बैठता है। दंगे रुकने के बाद भी समुदायों के बीच विभाजन की ऐसी खाई पैदा हो जाती है, जिसको भरना आसान नहीं होता। इस समय बिहार और प. बंगाल में जो कुछ भी हो रहा है उससे हर संवेदनशील भारतीय चिंतित है। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति राजनीतिक लाभ के