खाप पंचायतों पर नकेल जरूरी


राजएक्सप्रेस, भोपाल। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि शादी के लिए सहमत दो बालिगों के बीच विवाह के मामले में खाप पंचायतों (Khap Panchayats) का किसी भी तरह का दखल अवैध है और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि ऑनर किलिंग के सारे मामलों का निपटारा विशेष अदालतों के जरिए होना चाहिए। खाप पंचायतों पर नकेल कसना वक्त की जरूरत है, क्योंकि वे समाज में बेहतर संदेश दे पाने में विफल साबित हो रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि शादी के लिए सहमत दो बालिगों के बीच विवाह के मामले में खाप पंचायतों (Khap Panchayats) का किसी भी तरह का दखल अवैध है और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि ऑनर किलिंग के सारे मामलों का निपटारा विशेष अदालतों के जरिए होना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर व न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि ऑनर किलिंग अवैध है और इसे एक पल भी अस्तित्व में रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इससे पहले जनवरी माह में अंतरजातीय विवाह के खिलाफ तुगलकी फरमान जारी करने वाली खाप पंचायतों और ऐसे तमाम दूसरे संगठनों को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध बताते हुए कड़ी फटकार लगाई थी।
खाप पंचायतों पर सख्त कार्रवाई नहीं करने के लिए कोर्ट ने सरकार को भी काफी तल्ख लहजे में चेताया था। कोर्ट ने साफ कर दिया था कि अगर केंद्र सरकार खाप पंचायतों पर प्रतिबंध लगाने में सक्षम नहीं है, तो अदालत को ही कदम उठाने होंगे। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर व जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने कहा कि एक वयस्क लड़का या लड़की मर्जी से किसी से भी शादी कर सकते हैं। किसी खाप पंचायत, अभिभावक तथा समाज में किसी और को इस पर सवाल उठाने का हक नहीं है। कोर्ट ने कहा कि खाप पंचायत न तो किसी कपल को समन भेज सकती है और न ही किसी प्रकार का दंड दे सकती है।
हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में खाप पंचायतों द्वारा अंतरजातीय विवाह करने वाले युवाओं को प्रताड़ित करने के कई मामले सामने आए हैं। कुछ मामलों में तो हत्या जैसी घटनाएं भी हो चुकी हैं। हरियाणा की राजनीति को भी यह मुद्दा काफी प्रभावित करता रहा है। सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, किसी ने खाप के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखाई है। दूसरी तरफ खाप को मानने वाले लोग इसे अपनी परंपरा का हिस्सा बताते हुए इसका बचाव करते हैं। तभी कोर्ट को कहना पड़ा कि उसने जिस मामले में फैसला दिया है, वह 2010 का है, लेकिन देश की सरकार की गंभीरता का आलम यह है कि वह सुझाव भी नहीं दे पाई है।
अगर सरकार अपनी मर्जी से शादी करने वालों को सुरक्षा देने के लिए कानून नहीं लाती, तो कोर्ट गाइड लाइन बनाएगा। आज हम रहन-सहन में चाहें जितने आधुनिक हो गए हों, लेकिन मानसिकता अब भी अति संकीर्ण है। आज भी हमारे अंदर इतना साहस नहीं आ पाया है कि हम प्रेम को स्वीकार कर पाएं। हाल ही में दिल्ली से सटे सोनीपत की गोहाना तहसील के एक प्रेमी युगल को उनके परिवारजनों ने कथित इज्जत के नाम पर पीट-पीट कर मार डाला था। इसी तर्ज पर हरियाणा में सर्व खाप पंचायतों ने एक युगल को मार डालने का फरमान सुनाया था, क्या इससे राष्ट्र के अंदर ही तालिबानी धमक की गूंज नहीं सुनाई दे रही।
क्या राजनेताओं के लिए वोट बैंक और कुर्सी इतनी प्यारी हो गई है कि उनकी संवेदनाएं कुर्सी के तलुओं में दब चुकी हैं। तब एक मुख्यमंत्री ने कहा था कि यह एक सामाजिक मामला है शायद वह भूल गए कि वह भी उसी समाज का अंग हैं और उसी का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां के समाज में रहने वाले लोग उन्हीं के राज्य के हैं। वह खाप के समक्ष लाचार नजर आए। जब भी गांव, जाति, गोत्र और परिवार की इज्जत के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का जिक्र बार-बार होता है। शादी के मामले में यदि खाप पंचायतों को कोई आपत्ति हो तो, वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने या गांव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फैसला करती हैं।
ऐसा चलन उत्तर भारत में ज्यादा नजर आता है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। यह बहुत समय से चलता आया है..जैसे जैसे गांव बसते गए वैसे-वैसे ऐसी रिवायतें बनती गई हैं। रिवायती पंचायतें कई तरह की होती हैं। खाप पंचायतें भी पारंपरिक पंचायतें हैं, जो अब काफी उग्र नजर आ रही हैं, लेकिन इन्हें किसी तरह की आधिकारिक मान्यता नहीं है। खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या फिर गोत्र का दबदबा रहता है। साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है। ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फैसले लेते हैं। इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख पाते होंगे, यह सभी को पता है। युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता।
एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। ये फिर पांच गांवों की हो सकती है या 20-25 गांवों की भी। जो गोत्र जिस इलाके में ज्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज्यादा दबदबा होता है। कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है। सभी गांव निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएं या न आएं। जो भी फैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फैसला बताया जाता है और ये सभी पर बाध्य होता है। सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की थीं। विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा के देहाती इलाकों में जाटों के पास भूमि है।
प्रशासन व राजनीति में इनका खासा प्रभाव है, जनसंख्या भी ज्यादा है..इन राज्यों में ये प्रभावशाली जाति है और इसीलिए इनका दबदबा भी है। यही वजह है कि खाप पंचायतों पर अंकुश लगा पाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति अब तक जन्म नहीं ले पाई है। चुनाव आते ही खाप पंचायतें नेताओं के लिए वोट जुटाने का जरिया मान ली जाती हैं और उनके वे सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं, जिन्हें लेकर समाज और देश में गुस्सा था। राजनीतिक दलों ने खाप पंचायतों को लेकर जिस तरह का रवैया अख्तियार कर रखा है, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की है। पिछले साल अप्रैल में ही सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए थे। कोर्ट ने कहा था कि खाप पंचायतों पर नजर रखने की जवाबदेही कलेक्टर और एसपी को सौंपी जाए और अगर वे अधिकारी अपनी जिम्मेदारी ढंग से न निभा पाएं तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई की जाए।
पर इस आदेश पर आज तक अमल नहीं हुआ। पिछले कुछ समय से ‘खाप पंचायतें’अपने तुगलकी फरमान सुनाने और ‘ऑनर किलिंग’के आरोपों में घिरे होने के कारण ‘खौफ पंचायतों’में तब्दील हो चुकी हैं। इन खाप पंचायतों का दबदबा अधिकतर उत्तरी भारत में है। इन खाप पंचायतों ने एक के बाद एक कई बेतुके और गैर-कानूनी फैसले सुनाकर अपनी छवि को स्वयं धूमिल किया है। हरियाणा में खाप पंचायतों की जोणधी-प्रकरण, राणा प्रकरण, वेदपाल हत्याकांड, बलहम्बा हत्याकांड और मनोज-बबली हत्याकांड जैसे कई मामलों में अच्छी खासी बदनाम हुई हैं। एक के बाद एक कानून की धज्जियां उड़ाने वाली घटनाओं ने खापों को खलनायक बनाकर रख दिया है।
इस समय हरियाणा में लगभग 110 खापें अस्तित्व में हैं, जिनमें से 72 खापों की सक्रियता दर्ज की गई है। 2010 में खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों पर नकेल कसने के लिए केंद्र सरकार ने कानून में संशोधन करने के लिए एक मंत्री समूह गठित करने का निर्णय भी लिया था। लेकिन, राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह मामला यूं ही अटका हुआ है। हाल फिलहाल यह मामला जीओएम के अधीन बताया जा रहा है। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने फिर सरकारों को आईना दिखाया है, तो उन्हें देश और समाज की भलाई के लिए आगे आना होगा।

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