ममता की पैंतरेबाजी से खतरे में कौन?


राजएक्सप्रेस, भोपाल। रामनवमी के जुलूस के बाद बंगाल में भड़की हिंसा के बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee Strategy) दिल्ली में आकर विपक्ष को मोदी सरकार के खिलाफ गोलबंद करने में जुटी थी। उनकी मंशा अगले साल होने जा रहे लोकसभा चुनाव में मोदी को हराने की ज्यादा है, राज्य की भलाई की कम। विपक्ष की धुरी बनने का प्रयास कर रहीं ममता बनर्जी को दूसरे दलों का साथ कितना मिल पाएगा, यह भविष्य तय करेगा, मगर उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा जरूर स्पष्ट कर दी है।
13 मार्च को कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के रात्रिभोज में जुटे नेताओं की फोटो उन लोगों के लिए उम्मीदों का सबब बनकर आई थी, जो अगले आम चुनाव में देश में बदलाव की उम्मीद पाले हुए हैं, लेकिन उनके बदलाव का चेहरा राहुल गांधी हैं। ऐसा सोचने वालों की उम्मीदों पर एक पखवाड़े बाद ही ममता बनर्जी ‘नजर’ लगाती दिखीं। वाम मोर्चे के गढ़ के दिनों में पश्चिम बंगाल की शेरनी कही जाने वालीं ममता बनर्जी ने दिल्ली आकर जिस तरह विपक्षी नेताओं से ताबड़तोड़ मुलाकातें कीं, उससे मोदी विरोध को चाहे जितनी हवा और ताकत मिले, यह तय है कि इससे राहुल गांधी की राह में सबसे ज्यादा फच्चर फंसता नजर आ रहा है।
चूंकि वे आक्रामक हैं, अपने दम पर पश्चिम बंगाल का लाल गढ़ वे भेद चुकी हैं, इसलिए अगर उनकी तरफ मोदी विरोधी राजनीतिक ताकतों की उम्मीद भरी नजरों से देखने लगें तो हैरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता का अपना चरित्र होता है और मर्यादा भी। राजनीति का विपक्षी तेवर अलग होता है और सत्ता में आते ही उसी शख्सियत का चरित्र बदल जाता है। ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी के स्वभाव में सत्ता की वजह से बदलाव आया है, लेकिन उन्होंने अपना गुस्सैल अंदाज नहीं बदला है। अब भी वे संघर्षशील बने और दिखते रहना चाहती हैं। हालांकि, सत्ता और वोट की चिंता में उनका संघर्ष का अंदाज और औजार बदला जरूर है।
चूंकि, इस अंदाज में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण भी है और धर्मनिरपेक्षता की कथित चिंता भी, इसलिए वे विपक्ष की दुलारी भी हो सकती हैं। दिल्ली आकर उन्होंने जिस तरह विपक्षी नेताओं से एक पर एक मुलाकातें कीं, उससे साफ होता है कि विपक्ष भी उनके जरिए उम्मीद देखता है। उनसे मुलाकात करने वालों की फेहरिस्त देखिए। मोदी विरोध में जुबानी कटुता की हद तक जाने वाले अरविंद केजरीवाल हैं तो बरसों से प्रधानमंत्री पद पर उम्मीद भरी निगाह गड़ाए शरद पवार भी हैं। सपा में नंबर दो की हैसियत रखने वाले महासचिव रामगोपाल यादव हैं तो द्रविड़ मुनेत्र कषगम् की नेता कनिमोझी भी हैं।
उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी से नाखुश और नाराज चल रहे नेताओं यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी से भी मुलाकात की। ममता बनर्जी जिस पश्चिम बंगाल से आती हैं, वहां से 42 सीटें आती हैं। बांग्लाभाषी लोगों वाला दूसरे राज्य त्रिपुरा में उनका आधार बढ़ने की संभावना थी, जहां से लोकसभा की दो सीटें आती हैं, लेकिन हाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उनका सफाया कर दिया। पिछले आम चुनाव में अपने दम पर 42 में से 34 सीटें जीतने में कामयाब रहीं ममता बनर्जी की निगाह इस बार ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने पर है।
ममता यह भी चाहती हैं कि उनकी गोलबंदी में शामिल दलों के साथ उनकी 60 से 70 सीटें आ जाएं। इन सीटों से आने वाले दिनों में उनकी सियासी मोलतोल की क्षमता ही नहीं बढ़ेगी, बल्कि देश के सर्वोच्च प्रशासकीय पद की उम्मीद भी बढ़ सकती है। इसके लिए वे राजनीतिक सुझाव दे रही हैं। उनका कहना है कि मोदी विरोधी दलों को मिलजुलकर आगामी लोकसभा चुनाव में वन टू वन यानी सीधी टक्कर देनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर में हुए उपचुनावों में वन टू वन के फॉमरूले से मिली विपक्षी जीत को वे उदाहरण के तौर पर पेश कर रही हैं। दिल्ली की इस यात्र के दौरान उनकी मुलाकात मायावती के किसी सहयोगी से नहीं हुई है।
लेकिन तय है कि ममता अपनी गोलबंदी में माया को भी शामिल करने की कोशिश कर रही हैं। 1996 के आम चुनाव तक कांग्रेस को पटखनी देने के लिए इसी तरह कांग्रेस विरोधी दल अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में गोलबंदी करते रहे और वन टू वन यानी कांग्रेस को सीधी टक्कर देते रहे। जिस दल का जहां प्रभाव रहा, उसने वहां कांग्रेस को टक्कर दी और बाकी दलों ने उसे सहयोग दिया। ममता उसी को दोहराना चाहती हैं, लेकिन अब इस गोलबंदी के निशाने पर कांग्रेस नहीं, भारतीय जनता पार्टी है। इस वन टू वन के फॉमरूले में एक पेच है। खुद ममता के बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दल शायद ही उनके लिए राह छोड़ें।
इसलिए बात अगर नहीं बनी तो निश्चित मानिए, त्रिकोणीय मुकाबले होंगे। यह भाजपा की कामयाबी ही मानी जानी चाहिए, कि जिसे 1996 तक अछूत माना जाता था, उसके खिलाफ अब सभी दलों को एक होने की तैयारी करनी पड़ रही है। भारतीय राजनीति में इसे चमत्कारी घटना के तौर पर देखा जाना चाहिए। ममता के वन टू वन टक्कर में पेच हर राज्य में आएंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल कुछ सीटें छोड़ सकते हैं। इसी तरह झारखंड, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी कांग्रेस विपक्षी दलों के रहमो-करम पर होगी। लेकिन केरल में उसके सामने चुनौती आएगी।
भारतीय जनता पार्टी वहां लगातार उभर रही है। लेकिन सत्ताधारी वाममोर्चा अपनी मौजूदा ताकत को शायद ही नकारे और कांग्रेस भी अपनी ताकत से पीछे शायद ही हटे। दोनों कम से कम केरल में यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि उनकी ताकत घटी है और वे मिलजुलकर भाजपा को चुनौती देंगे। विवाद तो ओडिशा में भी होगा, जहां केरल की तरह भाजपा उभर रही है, लेकिन सत्ताधारी बीजू जनता दल शायद ही स्वीकार करे कि उसे कांग्रेस के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देनी है। ममता के इस अभियान के बीच दो और नेताओं के अभियानों पर भी पैनी निगाह रखनी होगी।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू भी अपने-अपने ढंग से भारतीय जनता पार्टी विरोधी मोर्चा बना रहे हैं। उन्होंने वन टू वन का फॉमरूला नहीं दिया है, लेकिन उनके राज्यों में भाजपा अभी बड़ी ताकत नहीं है, इसलिए वहां कांग्रेस से ही उनका मुकाबला है या फिर कांग्रेस से निकली वाईएसआर कांग्रेस से। इसलिए वहां भी मोदी विरोध के साथ कांग्रेस विरोध का पेच फंसेगा। ममता की यह पूरी कवायद कामयाब होती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी का होता नजर आता है। अगर नीतीश कुमार विपक्ष में रहे होते तो वे मोदी विरोध की बड़ी धुरी होते।
अगर वे 2013 में राजग से बाहर नहीं गए होते तो शायद और बड़े पद पर होते। ममता अतीत में नीतीश से ही राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिद्वंद्विता महसूस करती रही हैं। लेकिन अब नीतीश नहीं हैं। इसलिए उन्हें अपनी राह पहले की तुलना में ज्यादा आसान लगती हैं। ममता बनर्जी ने एक और संकेत दिया है। उन्होंने सोनिया या राहुल गांधी से मुलाकात नहीं की। संकेत साफ है कि वे मोदी विरोधी मोर्चे में ऐसी धुरी बनाना चाहती हैं, जिसके केंद्र में वे खुद हों। एक और बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेता और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद से मुलाकात की है। मतलब साफ है कि उन्हें भाजपा से नहीं, प्रधानमंत्री मोदी से परहेज है। यानी वे अपने विकल्प खुला रखना चाहती हैं।
खुदा न खास्ता अगर भविष्य में भाजपा अपने दम पर बहुमत से पीछे रह गई तो ममता किसी और की अगुआई में भाजपा के साथ आ सकती हैं। सोनिया गांधी की डिनर पार्टी में भले ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शामिल हो चुके हों या शरद पवार ने ममता बनर्जी से मुलाकात की हो, लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को भी भारतीय जनता पार्टी से परहेज नहीं है। जाहिर है कि मोदी विरोधी विपक्षी दलों की गोलबंदी से भाजपा पर दबाव तो बढ़ेगा ही, कांग्रेस भी सहज नहीं रहने जा रही। राहुल गांधी के उत्साह के गुब्बारे में पिन चुभोने का काम ममता जैसे अभियान करें तो हैरत नहीं होनी चाहिए।

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