शिक्षा अधिकार कानून आज भी उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाया, इससे सबक ले या सफलता



संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित ऐसा कानून जो देश के छह से 14 वर्ष के सभी बच्चों को नि:शुल्क, अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की बात तो करता है, पर कानून बनने के सात साल बाद भी उपलब्धियां असरकारक नहीं हैं। सात साल पहले शिक्षा अधिकार कानून (आरटीई) का आना बड़ा कदम था। लेकिन खामियों और इसके क्रियान्वयन में सरकारों की उदासीनता के चलते इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके। यदि आरटीई अपने उद्देश्यों को पूरा कर पाने में असफल साबित हो रहा है तो इसके लिए समाज और सरकार दोनों जिम्मेदार हैं। शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के सात साल बाद हमारे सामने चुनौतियों की एक लंबी सूची है। इस दौरान भौतिक मानकों जैसे स्कूलों की अधोसंरचना, छात्र-शिक्षक अनुपात आदि को लेकर स्कूलों में सुधार देखने को मिलता है, लेकिन पर्याप्त व प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, उनसे दूसरे काम कराया जाना, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रुकावट, बीच में पढ़ाई छोड़ने की बढ़ती दर और संसाधनों की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं। लेकिन सबसे चिंताजनक बात इस दौरान शिक्षा की गुणवत्ता और सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था पर भरोसे में कमी का होना है।
नीति आयोग के मुताबिक, वर्ष 2010-2014 के दौरान सरकारी स्कूलों की संख्या में 13 हजार 500 की वृद्धि हुई है, लेकिन इनमें दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या 1.13 करोड़ तक घटी है। वहीं, निजी स्कूलों में दाखिला लेने वालों की संख्या 1.85 करोड़ बढ़ी है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने जुलाई-2017 में संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए थे। रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर सरकारों के पास यह तक जानकारी नहीं है कि उनके राज्य में शून्य से लेकर 14 साल की उम्र के बच्चों की संख्या कितनी है व उनमें से कौन स्कूल जा रहा है और कितने बच्चे स्कूलों से वंचित हैं। देश भर के स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है और बड़ी संख्या में स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। इसका असर शिक्षा की गुणवत्ता व स्कूलों में बच्चों की रुकावट पर देखने को मिल रहा है। विश्व बैंक की ‘वल्र्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट-2018 लर्निग टू रियलाइज एजूकेशंस प्रॉमिस’ में दुनिया के 12 देशों की स्थिति का जिक्र है, जहां की शिक्षा व्यवस्था बदतर है। सूची में भारत का स्थान दूसरा है। रिपोर्ट के अनुसार, कई सालों तक स्कूलों में पढ़ने के बावजूद लाखों बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते हैं, वे गणित के आसान सवाल भी हल नहीं कर पाते हैं। ज्ञान का यह संकट सामाजिक खाई को और बड़ा कर रहा है। कानून को लागू करने में भी कोताही देखने को मिल रही है। राइट टू एजुकेशन फोरम की रिपोर्ट बताती है कि सात साल बाद केवल 9.08 प्रतिशत स्कूलों में ही इस कानून के प्रावधान पूरी तरह से लागू हो पाए हैं।
कैग के अनुसार आरटीई को लागू करने वाली संस्थाओं व राज्य सरकारों द्वारा लगातार लापरवाही बरती गई है। केंद्र सरकार को इस कानून के क्रियान्वयन पर खर्च का अनुमान तैयार करना था, लेकिन अभी तक पूरा नहीं किया गया है। इसीलिए प्रावधान होने के बावजूद आरटीई के लिए अलग से कोई बजट नहीं है। सर्व शिक्षा अभियान के बजट से ही काम चलाया जा रहा है। रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है कि कैसे इसके तहत राज्यों को आवंटित राशि खर्च ही नहीं हो पाती है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2010-11 से 2015-16 के बीच फंड के इस्तेमाल में 21 से 41 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है और राज्य सरकारें कानून लागू होने के बाद के छह सालों में उपलब्ध कराए गए कुल फंड में से 87 हजार करोड़ रुपए का इस्तेमाल ही नहीं कर पाई हैं। शिक्षा अधिकार कानून मूल स्वरूप में ही दोहरी शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार करता है, जबकि इसे तोड़ने की जरूरत थी। निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान मध्यवर्ग के बाद गरीब और वंचित वर्गो के लोगों का सरकारी स्कूलों के प्रति भरोसा तोड़ने वाला कदम साबित हो रहा है। यह प्रावधान शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है।
अच्छी शिक्षा के लिए जरूरी है विद्यालय व समुदाय में सहयोग की स्थिति बने। दोनों एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह, लेकिन अब समुदाय और स्कूलों के बीच संवादहीनता अथवा आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति बन चुकी है। पहले सरकारी स्कूलों के साथ समुदाय अपने आप को जोड़कर देखता था, लेकिन अब यह क्रम टूटा है और अब स्कूल सामुदायिक जीवन का हिस्सा नहीं हैं। आरटीई के तहत स्कूलों के प्रबंधन में स्थानीय निकायों और स्कूल प्रबंध समितियों को बड़ी भूमिका दी गई है, लेकिन वे भी जानकारी के अभाव और स्थानीय राजनीति के कारण अपना असर छोड़ने में नाकाम साबित हो रहे हैं। ज्यादातर स्कूल प्रबंध समितियां पर्याप्त जानकारी और प्रशिक्षण के अभाव में निष्क्रिय हैं। इस प्रकार पहले से कमतर शिक्षा का आरोप झेल रहे सरकारी स्कूलों में स्वयं सरकार ने कमतरी की मुहर लगा दी है। यह प्रावधान सरकारी शिक्षा के लिए भस्मासुर बन चुका है। यह गंभीर चुनौती है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। क्योंकि अगर सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था ही ध्वस्त हो गई, तो फिर शिक्षा के अधिकार की प्रासंगिकता ही नहीं बचेगी।

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