इंजीनियरिंग का कबाड़ा क्यों?
राजएक्सप्रेस, भोपाल। छात्रों की अरुचि के चलते देशभर के दो
सौ से ज्यादा इंजीनियरिंग कॉलेजो ने खुद को बंद करने का आवेदन दिया है
(Engineering Colleges Shut Down)। सवाल यह है कि ऐसी नौबत क्यों आई? क्या
सिर्फ कॉलेजों को दोष देने से समस्या हल हो जाएगी बिल्कुल नहीं। इसके लिए
सिस्टम भी जिम्मेदार है।
एक समय था जब इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों की संख्या काफी ज्यादा थी।
वहीं अब इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने वाले छात्रों की संख्या में कमी आई
है। कमी की वजह छात्रों की दिलचस्पी बताई जा रही है, जो धीरे-धीरे खत्म हो
रही है, जिसकी वजह से 200 इंजीनियरिंग कॉलेज को बंद करने का फैसला लिया जा
रहा है। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन के अनुसार करीब 200
इंजीनियरिंग कॉलेजों ने बंद करने के लिए आवेदन दिए हैं (Engineering
colleges to shut down), जिसके बाद दूसरे और तीसरे दर्जे के ये इंजीनियरिंग
कॉलेज अब किसी भी छात्र को एडमिशन नहीं दे सकते।
देखा जाए, तो 200 कॉलेज के बंद हो जाने के बाद इंजीनियरिंग की सीटों में
भी गिरावट आएगी। इस साल करीब 80 हजार सीटों में गिरावट आ सकती है। अनुमान
है और 2018-19 समेत चार सालों के अंदर इंजीनियरिंग कॉलेजों में करीब 3.1
लाख सीटें कम हो जाएंगी। साल 2012-2013 से इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने
वाले छात्रों की संख्या में 1.86 लाख की कमी आई है, जिसके बाद साल 2016 से
पाया गया कि हर साल इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने वाले छात्रों की संख्या
में लगातार कमी आ रही है।
हर साल करीब 75 हजार छात्र कम हो रहे हैं। इंजीनियरिंग में
अंडरग्रेजुएशन कर रहे छात्रों में कमी देखने को मिली है। 2016-17 में
अंडरग्रेजुएट में एडमिशन लेने की क्षमता 15 लाख 71 हजार 220 थी वहीं सिर्फ 7
लाख 87 हजार 127 छात्रों ने एडमिशन लिया। 2015-2016 में 16 लाख 47 हजार
155 छात्र ले सकते थे लेकिन सिर्फ 8 लाख 60, हजार 357 छात्रों ने एडमिशन
लिया। इंजीनियरिंग शिक्षा की यह बदहाल स्थिति देश में कुकुरमुत्तों की तरह
उगे निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की देन है। इन कॉलेजों के चलते तकनीकी शिक्षा
का बुरा हाल हो गया है।
अगर प्रतियोगिता के माध्यम से इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करने की
बात छोड़ दें तो वर्ष 2000 तक छात्र दक्षिण के निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों
में इंजीनियरिंग पढ़ने जाते थे। उस समय इंजीनियरिंग में प्रवेश कराने वाले
दलालों ने भारी मुनाफा कमाया। 1997 में दक्षिण की तर्ज पर देश के विभिन्न
राज्यों में निजी इंजीनियरिंग कॉलेज खुलने शुरू हुए और तकनीकी शिक्षा रसातल
में जाती रही। अधिकतर राज्यों में यही हाल है। शिक्षा के निजीकरण ने
सरकारी मशीनरी को खाने-कमाने की मशीन बना दिया है।
इस मुद्दे पर सबसे बड़ी विडंबना यह है कि कॉलेजों के मालिकों को तो सभी
दोष दे देते हैं, लेकिन सरकारी मशीनरी को कोई दोष नहीं देता है। सवाल है कि
सरकार, प्राविधिक विश्वविद्यालय और एआईसीटीई छात्रों को केवल डिग्रियां
बांटना चाहते हैं या फिर उन्हें एक सफल इंजीनियर और प्रबंधक बनाना चाहते
हैं? इन तीनों संस्थाओं के मौजूदा रवैये से यही लगता है कि हम डिग्रीधारी
युवकों की एक फौज खड़ी करना चाहते हैं। मगर यही फौज आज बेरोजगारी के रूप
में देश में मौजूद है। अगर हम पहले चेत गए होते, तो आज यह स्थिति नहीं
होती।
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