भारत-फ्रांस संबंधों को आयाम


फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों की चार दिवसीय भारत यात्र को अन्य राष्ट्राध्यक्षों के मुकाबले ज्यादा परिणामकारी तथा भविष्य की दृष्टि से ऐतिहासिक आयाम देने वाला माना जा सकता है। यद्यपि यात्र के कई कार्यक्रम थे, जिसमें विश्व सौर सम्मेलन से लेकर वाराणसी की यात्र तथा उत्तप्रदेश के ही मिर्जापुर में फ्रांस की कंपनी एनवॉयर सोलर प्राइवेट लिमिटेड और नेडा द्वारा निर्मित दादरकलां गांव में 650 करोड़ रुपए से बने 75 मेगावॉट के सौर ऊर्जा परियोजना का उद्घाटन शामिल था।
इनका भी अपना महत्व है पर इसके पहले जो 14 समझौते हुए उनके दूरगामी सामरिक, आर्थिक, व्यापारिक व रक्षा-सुरक्षा क्षेत्र में व्यापक महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता। वास्तव में मैक्रों की इस यात्र पर दुनिया के सभी प्रमुख देशों की नजरें लगी थीं। जिस समय मैक्रों भारत आए, उस समय की रक्षा स्थितियां काफी संशयपूर्ण बनी हुई हैं।
पहले से ही यह बात साफ हो गई थी दोनों देश रक्षा क्षेत्र में कुछ ऐसा समझौता करेंगे, जो भविष्य में हिंद प्रशांत क्षेत्र का सामरिक परिदृश्य बदल सकता है।
तो देशों का ध्यान मैक्रों की यात्र पर रहना था। वैसे भी पिछले 20 सालाें की सामरिक साझेदारी में भारत और फ्रांस काफी नजदीक आए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी दो बार की फ्रांस यात्र में इसे और सशक्त करके रक्षा साझेदारी का आधार भी बनाया है। वास्तव में रक्षा क्षेत्र में हुए समझौते को ऐतिहासिक मानने से कतई इंकार नहीं किया जा सकता। आखिर दोनों देशों की सशस्त्र सेनाओं द्वारा एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों का इस्तेमाल तथा सैन्य सामान का आदान-प्रदान करने का समझौता हमने और कितनी शक्तियों से साथ किया है? अमेरिका के बाद फ्रांस ही अकेला ऐसा देश है, जिसके साथ यह समझौता हुआ है।
भारत और फ्रांस की सेनाएं रणनीतिक जरूरतों के मुताबिक एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों का इस्तेमाल एवं सैन्य साजो-सामान का आदान-प्रदान कर सकेंगी। दोनों देशों की सेनाएं साजो सामान की आपूर्ति, युद्ध अभ्यास, प्रशिक्षण, मानवीय सहायता और आपदा कार्यो में भी सहयोग करेंगी।
इसका एक महत्वपूर्ण बिंदु समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा, जलपोतों की निगरानी तथा जल सर्वेक्षण के संबंध में सहयोग है।
साफ है कि दोनों देश अपने नौसेना अड्डे को भी एक-दूसरे के लिए खोलेंगे। वास्तव में मैरीटाइम अवेयरनेस के तहत भारत और फ्रांस एक-दूसरे के नौसैनिक अड्डों को युद्धपोतों को रखने और नेविगेशन यानी आने-जाने के लिए इस्तेमाल कर सकेंगे।
यह एक बहुत बड़े सहयोग की शुरुआत है। फ्रांस मेडागास्कर के पास हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और अफ्रीकी बंदरगाह जिबूती में भारतीय जहाज को प्रवेश देगा।
इससे भारत का समुद्र के रास्ते होने वाला कारोबार मजबूत होगा। ध्यान रखिए जिबूती में चीनी सैन्य अड्डा भी है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि यह रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। यहां से चीन की गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती है। प्रशांत महासागर से जुड़े भारतीय हितों के लिए भी यह द्वीप खास भूमिका अदा कर सकता है। चीन चाहे इसे जिस नजर से देखे लेकिन उसकी गतिविधियांे से भारत तो चिंतित है ही दुनिया में भी उसे संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है।
चीन वन बेल्ट वन रोड नीति के तहत हिंद महासागर में गतिविधियां बढ़ा रहा है। वह एशिया और अफ्रीका के कई देशों में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा रहा है।
इससे फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों की चिंता बढ़ी है। चीन ने अफ्रीकी देश जिबूती में जो नौसैनिक अड्डा बनाया है उसका उद्देश्य क्या हो सकता है? हम उससे आंखें तो मूंद नहीं सकते।
इसलिए हमें भी फ्रांस के साथ आना पड़ा है। राष्ट्रपति मैक्रों ने साफ शब्दों में कहा कि फ्रांस इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर बेहद सक्रिय है और यहां स्थिरता को लेकर भारत हमारा एक अहम सुरक्षा साझेदार है।
यानी यह न कोई छिपा समझौता है और न इसके उद्देश्य को अस्पष्ट रखा गया है।
चीन को देखिए। वह कई छोटे देशों को अपने साथ मिलाकर दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। जिबूती नौसैनिक अड्डा बनाने के पहले ही वह हिंद महासागर में स्वेज नहर से लेकर मलक्का तक अपने पांव पसार रहा है। चीन के वन बेल्ट-वन रोड परियोजना में भी कई ऐसे एशियाई और अफ्रीकी देश शामिल हैं, जो हिंद महासागर के आसपास हैं। इसके तहत चीन पड़ोसी देशों के अलावा यूरोप को सड़क से जोड़ेगा। ये चीन को दुनिया के कई बंदरगाहों से भी जोड़ देगा। 46 बिलियन डॉलर के चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पर काम चल रहा है। बांग्लादेश, चीन और म्यांमार के साथ एक गलियारा की भी योजना है। पाक के ग्वादर बंदरगाह को चीन के शिनजियांग से जोड़ा जा रहा है, श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को वह 99 सालों के लिए लीज पर ले चुका है और मालदीव के कई छोटे द्वीपों को भी उसने खरीद लिया है। अंडमान और निकोबार प्रायद्वीप के पास लेकर म्यांमार की सीमा तक चीन ने अपनी सैन्य गतिविधियां बढ़ाई हैं। इन सबको देखते हुए फ्रांस भारत रक्षा समझौते का महत्व और इसकी आवश्यकता समझ में आ जाती है।
चीन ने हालांकि भारत-फ्रांस संबंधों पर कोई त्वरित प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन उसे पता है कि यह कोई निष्क्रिय समझौता नहीं है। हालांकि, चीन की गतिविधियां हमारे लिए चिंता कारण हैं और इस समझौते में इसका ध्यान रखा गया है लेकिन इसका निशाना केवल वही है ऐसा कहना भी गलत होगा। दुनिया जिन स्थितियों से गुजर रही है उसे देखते हुए कई देश रक्षा क्षेत्र में एक-दूसरे के साथ आ रहे हैं। कभी परिस्थितियां प्रतिकूल हुईं तो फिर ये समझौते उस समय काम आएंगे। फ्रांस और इसके पहले अमेरिका जैसी प्रमुख रक्षा शक्तियों ने यदि भारत को समान महत्व दिया है तो इसका मतलब है कि भारत की रक्षा शक्ति को उसने स्वीकार किया है। समझौता के अनुसार सहयोग आगे बढ़ता है तो यह हिंद प्रशांत क्षेत्र के रक्षा परिदृश्य में कुछ तो बदलाव करेगा। अमेरिका पहले ही हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका की घोषणा कर चुका है। फ्रांस का यह समझौता बिना इसे घोषित किए इसे व सुदृढ़ करने वाला है। गोपनीय तथा संवेदनशील जानकारियों की सुरक्षा के बारे में भी जो समझौता हुआ उसे भी इसी के साथ जोड़कर देखा जाएगा।
दोनों देशों के संबंध केवल रक्षा क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। फ्रांस और भारतीय कंपनियों के बीच 16 अरब डॉलर के समझौतों पर भी मुहर लगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि शिक्षा, आव्रजन के क्षेत्र में समझौते हमारे युवाओं के बीच करीबी संबंधों की रूपरेखा तैयार करेंगे। हमारे युवा एक दूसरे के देश को जानें, एक-दूसरे के देश को देखें, समझें, काम करें ताकि हमारे संबंधों के लिए हजारों राजदूत तैयार हों। उनका यह कहना सही है कि हम सिर्फ दो सशक्त स्वतंत्र देशों तथा दो विविधतापूर्ण लोकतंत्रों के ही नेता नहीं हैं बल्कि दो समृद्ध और समर्थ विरासतों के उत्तराधिकारी भी हैं। तो कुल मिलाकर कोई इसे अस्वीकार नहीं कर सकता कि मैक्रां की यात्र से रक्षा सहित बहुपक्षीय संबंधों की ऐतिहासिक शुरुआत हुई है।
अवधेश कुमार
(वरिष्ठ पत्रकार)

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