श्रम की भागीदारी की अनदेखी क्यों?


राजएक्सप्रेस, भोपाल। हाल ही में एक अध्ययन में सामने आया है कि मां का काम किसी नौकरी में करने वाले काम के मुकाबले ढाई गुना ज्यादा होता है। इस अध्ययन के अनुसार, एक मां बच्चे की देखभाल में 98 घंटे प्रति सप्ताह काम करती है। बावजूद इसके हमारे परिवारों में न तो बच्चों और परिवार के लिए जीने वाली महिलाओं (Ignorance of Women Labor)के मन की जद्दोजहद समझी जाती है और न ही उनकी भागीदारी को सराहने की सोच मौजूद है। लिहाजा भावनात्मक टूटन के ऐसे दौर में अपनों का सहयोग जरूरी है।
हाल ही में एक अध्ययन में सामने आया है कि मां का काम किसी नौकरी (Job) में करने वाले काम के मुकाबले ढाई गुना ज्यादा होता है। इस अध्ययन के अनुसार, एक मां बच्चे की देखभाल में 98 घंटे प्रति सप्ताह काम करती है। इस अमेरिकी सर्वे में 5 से 12 साल की उम्र के बच्चों की दो हजार मांओं को शामिल किया गया जिसके परिणाम हैरान करने वाले रहे। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि बच्चे को पालना किसी पूर्णकालिक नौकरी से कम नहीं है। अमेरिका में हुई इस हालिया रिसर्च के मुताबिक, एक मां दिनभर में औसतन एक घंटा सात मिनट का समय ही अपने लिए निकाल पाती है। अध्ययन में यह भी पता चला है कि 40 फीसदी मांएं कभी न खत्म होने वाले कामों की फेहरिस्त के दबाव में जिंदगी गुजारती हैं।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है कि मांओं की जिंदगी की कठिनाइयां सामने आई हों। इससे पहले 2013 में हुए एक सर्वे में सामने आया था कि एक मां के कार्यो की सूची में लगभग 26 काम होते हैं। एक आम दिन में मां औसतन सुबह से रात तक 14 घंटे तक बच्चे के लिए काम करती रहती है। यानी सप्ताह के पूरे सात दिनों में हर दिन 14 घंटे की पारी के बराबर का काम हुआ। यह किसी भी सामान्य नौकरी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। कुल मिलाकर अध्ययन यह कहता है कि मां का काम सबसे बड़ा तो है ही, सबसे मुश्किल भी है। ऐसे में सवाल यह है कि ऐसी अनमोल भागीदारी की उपेक्षा ही क्यों देखने को मिलती है, जबकि किसी भी देश या समाज में माओं की भूमिका भले ही साधारण दिखती है पर इसका निर्वहन असाधारण ऊर्जा और समर्पण चाहता है।
यह अध्ययन वाकई विचारणीय है क्योंकि मातृत्व की जिम्मेदारियों और जद्दोजहद के मोर्चे पर भारत में महिलाओं के हिस्से आने वाले काम और परेशानियां पश्चिमी देशों से कहीं ज्यादा हैं। हमारे यहां मां की भूमिका का महिमामंडन तो खूब होता है, पर असल में जाने क्यों और कैसे ये तक कहा जाने लगा है कि मां का जॉब थैंकलैस होता है। हालिया बरसों में भले ही मशीनें घर के कामकाज में मददगार बनी हैं पर बतौर मां घर और बच्चों की जिम्मेदारी संभाल रही महिलाओं की भागदौड़ कम नहीं हुई है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2014 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में महिलाएं दिनभर में 352 मिनट अवैतनिक कार्यो को करने में बिताती हैं। इन कामों के लिए उन्हें कोई आर्थिक फायदा नहीं मिलता।
एक राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक, 45 प्रतिशत ग्रामीण और 56 प्रतिशत शहरी महिलाएं जिनकी उम्र पंद्रह साल या उससे ज्यादा है पूरी तरह से घरेलू कार्यो में लगी रहती हैं। यह आंकड़ा हैरान करने वाला है कि 60 साल से ज्यादा की उम्र वाली एक तिहाई महिलाएं ऐसी हैं, जिनका सबसे ज्यादा समय इस आयु में भी घरेलू कार्यो को करने में ही जाता है। आमतौर पर ये कार्य घर और मातृत्व के दायित्वों से ही जुड़े होते हैं। कमोबेश हर घर में खुद को हमेशा दोयम दर्जे पर रखने वाली मांओं को दूसरों की शर्तो, इच्छाओं और खुशियों के लिए जीने की न केवल आदत सी हो जाती है बल्कि किसी काम में जरा सी भी कमी रह जाए तो, वे अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हैं।
घर-परिवार के सभी सदस्यों के लिए हर समय कुछ न कुछ करने के बावजूद भूमिका को अनदेखा करने की वजह आर्थिक भागीदारी का मोल न समझना है। पश्चिमी देशों में महिलाओं की इस भागीदारी का मोल समझा जाता है क्योंकि वहां इसकी आर्थिक अहमियत को समझा जाता है, जबकि भारत में जिम्मेदारियों के लिए भागमभाग करने वाली महिलाओं के योगदान की मॉनिटरी वैल्यू नहीं आंकी जाती है। हमारे परिवारों में महिलाओं की इस अहम भूमिका को अनदेखा किया जाता है। असल में देखा जाए तो मातृत्व की जिम्मेदारी उठाने वाली महिलाएं भी देश की श्रमशक्ति का हिस्सा हैं। मौजूदा समय में घर के भीतर और बाहर बहुत कुछ बदल गया है लेकिन श्रम की उपेक्षा कायम है।
मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो यह अनदेखी उनके मन में अपराधबोध के भाव को भी जन्म देती है। अनदेखी भरा यह रूखा व्यवहार भले ही हमारे परिवारों में साधारण सी बात माना जाता है पर इस बर्ताव के चलते अपना सब कुछ पारिवारिक जीवन को सहेजने और संवारने में लगा देने वाली महिलाओं के मन में खुद को कम आंकने और हर तरह से नाकाम पाने की सोच पनपने लगती है। एक अध्ययन में भी सामने आया है कि 96 फीसदी महिलाएं दिन में कम से कम एक बार खुद को दोषी या अपराधी मानती हैं। अपराधबोध से जुड़ा उनका यह भाव अधिकतर मामलों में बच्चों की परवरिश या परिवार की संभाल से ही जुड़ा होता है। नि:संदेह इसमें गृहणियों की संख्या अधिक है क्योंकि उनका दायरा तो पूरी तरह घर-गृहस्थी तक ही सिमटा है।
बीते साल मिस वल्र्ड प्रतियोगिता में पूछे गए एक प्रश्न के लिए भारत की ही मानुषी छिल्लर जवाब था कि मां सबसे ज्यादा सम्मान की हकदार है और जब आप वेतन की बात करते हैं तो यह सिर्फ पैसे की बात नहीं होती है बल्कि यह प्रेम और सम्मान है जो आप किसी को देते हैं। इस एक सवाल के अपने अनोखे जवाब से मानुषी सब पर भारी पड़ गईं और खिताब उनके हिस्से आया। लेकिन हमारे परिवारों में न तो बच्चों और परिवार के लिए जीने वाली महिलाओं के मन की जद्दोजहद समझी जाती है और न ही उनकी भागीदारी को सराहने की सोच मौजूद है। दरअसल, भारत जिस किस्म के सामाजिक-पारिवारिक ढांचे का देश है, मातृत्व से जिम्मेदारी के साथ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ीं कई अन्य परेशानियां भी महिलाओं के लिए दंश बनी हुई हैं।
आज भी हमारे यहां गांवों से लेकर शहरों तक, कई परिवारों में महिलाओं की शारीरिक सेहत और आयु वर्ग की अनदेखी करते हुए उन्हें मां बनने की नसीहत दी जाती है। आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं प्रसव की जटिलताओं और परवरिश की दुविधाओं को झेलने को विवश हैं। आज भी राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के आंकड़ों के मुताबिक, हमारे यहां संस्थागत प्रसव का राष्ट्रीय औसत 41 फीसदी ही है। देश में केरल में 100 फीसदी संस्थागत प्रसव होते हैं तो नगालैंड में यह 12 प्रतिशत है। मातृत्व के कुछ ऐसे पड़ाव होते हैं, जहां पर मानसिक स्वास्थ्य को बड़ी चुनौतियां मिलती हैं।
उस दौर में अगर अपनों का सहयोग और सम्बल न मिले तो महिलाए शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों की भी चपेट में आ जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, विकासशील देशों में प्रसवोत्तर अवसाद, यानी शिशु को जन्म देने के बाद होने वाले डिप्रेशन, से 20 प्रतिशत माताएं प्रभावित होती हैं। भारत में हर साल लगभग करीब 13 करोड़ शिशु जन्म लेते हैं। ऐसे में यह समझना कठिन नहीं कि बड़ी संख्या में महिलाए इन व्याधियों से जूझती हैं। हर दिन घंटों मातृत्व की जिम्मेदारी निभाने की भागदौड़ की भावनात्मक टूटन के ऐसे दौर में अपनों का सहयोग बेहद आवश्यक है।

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