जल संकट की आहट सुनें हम


राजएक्सप्रेस, भोपाल। Shimla Water Crisis: अब पानी की कमी को लेकर शिमला परेशान हो रहा है। दरअसल, शहरों में पानी की कमी लचर नीतियों की देन है। हम पानी की कमी को ट्रेन से सैकड़ों मील दूर पानी पहुंचा कर हल कर रहे हैं। जबकि दीर्घकालिक हल निकालने पर किसी का ध्यान नहीं है। हर साल बारिश में न जाने कितना पानी व्यर्थ बह जाता है, अगर उस पानी को सहेज कर रखने की आदत हमने बनाई होती, तो पानी के लिए पसीना नहीं बहाना पड़ता।
शिमला जल संकट वाकई भयावह है। हालात इतने गंभीर हैं कि हफ्ते भर से लोग बूंद-बूंद को तरस रहे हैं। एक-एक बाल्टी पानी के लिए रात-रात भर कतार में लग रहे हैं, तब भी पानी मिलने की गारंटी नहीं है। यह पहला मौका है जब वहां लोग बाल्टियां लिए सड़कों पर खड़े हैं। हालांकि इस पहाड़ी शहर और प्रदेश की राजधानी में पानी की समस्या कई सालों से है, पर इसका विकराल रूप अब सामने आया है। इस बार के जल संकट से सरकार और प्रशासन के हाथ-पांव फूले हुए हैं। मौजूदा हालात से निपटने के लिए उच्चस्तरीय समिति बनाई गई है, लेकिन पानी कहां से लाया जाए, यह किसी को नहीं सूझ रहा। हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने मौजूदा जल संकट का संज्ञान लेते हुए कड़ा रुख अख्तियार किया है। उसने निर्देश दिया है कि वीआइपी इलाकों यानी मंत्रियों, जजों, अफसरों के इलाकों में टैंकरों की आपूर्ति एकदम बंद कर दी जाए और यह पानी जनता को मुहैया कराया जाए।
सवाल है कि क्या सरकार और प्रशासन को जरा भी भनक नहीं लगी कि आने वाले दिनों में पानी की ऐसी भारी किल्लत होगी? शिमला नगर निगम आखिर करता क्या रहा? पानी की आपूर्ति करने वाले महकमे को जरा भी इस संकट का आभास नहीं हुआ? जब पता है कि हर साल गरमी में वहां जल संकट रहता है, तो समय रहते उससे निपटने की दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जाते? ये ऐसे सवाल हैं जो सरकार और प्रशासन की लापरवाही की पोल खोलते हैं। जाहिर है, जब समस्या विस्फोट के रूप में सामने आई तो हायतौबा मचाने के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता। इसीलिए अदालत को संज्ञान लेना पड़ा। पानी का बंदोबस्त कैसे किया जाए, यह काम नगर निगम और जलदाय विभाग का होता है, लेकिन हालात इतने बेकाबू हो चुके हैं कि अदालत को बताना पड़ रहा है कि क्या कदम उठाए जाएं। हाईकोर्ट ने शहर में पानी के एटीएम लगाने को कहा है। शहर में हफ्ते भर के लिए निर्माण कार्यो पर पाबंदी लगा दी गई है। सख्त हिदायत है कि लोग गाड़ियां न धोएं। अदालत के सुझावों से यह तो स्पष्ट है कि सरकार व प्रशासन ने अगर ऐसे निदानात्मक कदम पहले उठा लिए होते तो शायद आज यह नौबत न आती।
शिमला को पानी की आपूर्ति मुख्यरूप से अश्विनी नदी और गुम्मा नाले से होती है। शिमला को सतलुज नदी से पानी पहुंचाने के लिए 1982 में सर्वेक्षण हुआ था और तब इस काम पर 27 करोड़ रुपए खर्च होने थे। लेकिन कुछ नहीं हुआ और आज यह परियोजना पांच सौ करोड़ से ऊपर निकल गई है। इससे लगता है कि सरकारों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शिमला पूरे साल पर्यटकों से भरा रहता है, लेकिन आज जल संकट की वजह से पर्यटकों से यहां नहीं आने की अपील की जा रही है। अंतरराष्ट्रीय ग्रीष्म महोत्सव रद्द कर दिया गया है। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो वह दिन दूर नहीं, जब दूसरे शहर भी ऐसे संकट से जूझते नजर आएं।
कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली के जल स्तर में लगातार गिरावट पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि इसकी वजह से दिल्ली में वॉटर वॉर संभव है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अथॉरिटी मामले की गंभीरता को नहीं समझ पा रही है। जमीन से लगातार पानी निकालने की वजह से हालात गंभीर हो चुके हैं। यह सब स्तब्ध करने वाला है। इससे पहले सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की ओर से राजधानी में ग्राउंड वॉटर लेवल पर रिपोर्ट पेश की गई। जस्टिस मदन बी. लोकुर की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि रिपोर्ट देखने से साफ है कि कई जगहों पर पानी का स्तर आधा मीटर से लेकर दो मीटर सालाना की दर से घट रहा है। दरअसल, यह समस्या अकेले दिल्ली की नहीं है। पूरा देश ही जल संकट से जूझ रहा है। बेंगलुरु तो दुनिया के उन शहरों में है, जहां का पानी आने वाले वर्षो में एकदम खत्म हो जाएगा। पानी की समस्या ने भारत के कई राज्यों को अपनी चपेट में ले रखा है। जमीन के नीचे पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। साल दर साल गर्मी का पारा चढ़ रहा है और देश सूखे की गंभीर स्थिति का सामना कर रहा है।
पानी को लेकर एक दुविधा की स्थिति है जो देश के कई हिस्सों में दिखाई पड़ती है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और विशाल कृषि क्षेत्र ने देश में मौजूद पानी की सप्लाई पर दबाव बढ़ा दिया है। रिसर्च के नतीजे बताते हैं कि देश में मौजूद पानी का 80 फीसदी खेती में इस्तेमाल होता है, जबकि उद्योग इस पानी का 10 फीसदी से भी कम इस्तेमाल करते हैं। पानी का मौजूदा संकट सिर्फ पानी की कमी और मांग के बढ़ने की वजह से ही नहीं है इसमें पानी के प्रबंधन का भी बहुत बड़ा हाथ है। हाल ही में आई वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि अगर नीति बनाने वालों ने जल संसाधन की व्यवस्था पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया तो भारत के ज्यादातर बड़े शहर 2020 तक सूख जाएंगे। पानी की सुरक्षा प्रमुख रूप से भोजन और ऊर्जा की सुरक्षा से जुड़ी है इसलिए एक कुशल तंत्र बनाना जरूरी है। बता दें कि भारत 2013 को जल संरक्षण साल के रूप में मना चुका है, लेकिन तब से लेकर एक भी साल पानी को लेकर सुखद स्थिति दिखाई नहीं दी है।
देखा जाए तो आज भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। आज मनुष्य मंगल ग्रह पर जल की खोज में लगा हुआ है, लेकिन भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अनेक गांवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु पीने योग्य मीठा जल मात्र तीन प्रतिशत है, शेष भाग खारा जल है। इसमें से भी मात्र एक प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में हम उपयोग कर पाते हैं। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण और जल की खपत बढ़ने के कारण जलचक्र बिगड़ता जा रहा है। यह सच है कि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्र आज भी उतनी है जितनी कि दो हजार वर्ष पूर्व थी, बस फर्क इतना है कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में मात्र तीन प्रतिशत ही थी।
वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में भारत ने खूब प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में भी भारत अग्रणी देश बन गया है लेकिन सभी के लिए जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धि जो 1994 में 6000 घन मीटर थी, घटकर 2000 में मात्र 2300 घन मीटर रह गई है। जनसंख्या की वृद्धि दर और जल की बढ़ती खपत को देखते हुए यह आंकड़ा 2025 तक मात्र 1600 घन मीटर हो जाने का अनुमान है। मानसून की भविष्यवाणी हो चुकी है और इसके समय से पहले आने के संकेत मिलने लगे हैं। यह सुखद है, लेकिन देश में जो जल संकट है वह अस्थायी रूप से ही टलेगा क्योंकि जल संरक्षण के तरीके ठीक नहीं हैं।

सरिता नागवंशी (स्वतंत्र टिप्पणीकार)

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