पद्मावती पर चुप न बैठें सरकारें, फिल्म के विरोध का हिंसक होना खतरे की घंटी




फिल्म पद्मावती के विरोध में हिंसक मोड़ आ गया है। जयपुर के ऐतिहासिक नाहरगढ़ किले की प्राचीर से शुक्रवार सुबह एक युवक का शव लटका मिला। युवक की पहचान चेतन नाम के शख्स के रूप में हुई है। शव के पास कोयले से जगह-जगह पद्मावती का विरोध लिखा है और यह भी लिखा गया है कि हम पुतले जलाते नहीं लटकाते हैं। विरोध का यह तरीका बेहद भयावह है। पद्मावती फिल्म के विरोध का सिलसिला अब देश की सीमा से बाहर विदेशों तक पहुंच चुका है। गुरुवार को ब्रिटेन में फिल्म की रिलीज को हरी झंडी मिलने के बाद वहां रह रहे राजपूतों ने आवाज बुलंद की है। इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में फिल्म के प्रदर्शन की बात कही है। सेंसर बोर्ड फिल्म को पास करने की हिम्मत नहीं दिखा रहा है, तो सरकारों को राजपूतों के रूप में बड़ा वोट बैंक नजर आ रहा है। एक फिल्म को लेकर देश में जिस कदर हो-हल्ला मचाया जा रहा है, वह चरम पर है। एक भी चिंगारी नाहरगढ़ किले की घटना की पुनरावृत्ति होने में देर नहीं लगाएगी। सो, हम सजग हो जाएं।
फिल्मों या रचनात्मकता पर विवाद नई बात नहीं, लेकिन उनके सामने आने से पहले ही इतने बड़े बवंडर का यह शायद पहला मामला हो। रिलीज की तारीख तय होने के बाद से या कहें कि शूटिंग के दौरान से ही फिल्म के विरोध का दौर तेज हो गया है। अब तो बात नाक और गला काटने से लेकर जान देने-लेने तक पहुंच चुकी है। यह सब तब है, जब सर्वोच्च न्यायालय पहले ही यह कहते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की याचिका खारिज कर चुका है कि किसी फिल्म के बारे में फैसला लेना सेंसर बोर्ड का काम है और वह किसी भी फिल्म को प्रमाणपत्र देने से पहले हर पहलू पर गौर करता है। चिंता की बात यह है कि यह पूरा विवाद फिल्म देखे बिना यानी अटकलों पर ही आधारित है। बहरहाल, इस विवाद ने इतिहास की संवेदनशीलता और ऐसे मुद्दों पर फिल्म बनाने या लेखन पर भी बहस छेड़ दी है। फिल्म एक रचनात्मक माध्यम है और कल्पना उसका हिस्सा। इसे पूर्णता में देखने की जरूरत है। यह तभी होगा, जब हम रचना को मुकम्मल रूप में सामने आने तक इंतजार करें।
अब जिस तरह नाम और चरित्र को लेकर विवाद छिड़ा है, उसमें एक खतरा यह भी दिखाई देता है कि ऐसे में तो ऐतिहासिक फिल्में ही नहीं बन सकेंगी। जो समाज सलमान रुश्दी के सैटेनिक वर्सेज पर खुमैनी के फतवे का खुलकर विरोध करता है, वह समाज एक फिल्म को लेकर मरने-मारने की बात कैसे कर सकता है? फिर केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की चुप्पी भी सवाल उठाती है। माना कि सरकारें अपने समाजों को खुश रखने के लिए हैं, लेकिन यह भी सच है कि कोई भी समाज बिना रचनात्मक शक्ति के आगे नहीं बढ़ सकता। समाजों को खुश करने के चक्कर में देश के अमन-चैन पर जो खतरा आ खड़ा हुआ है, उसकी अनदेखी भी सरकारों को नहीं करनी चाहिए। नाहरगढ़ किले की घटना के बाद करणी सेना ने हिंसा न करने की अपील की है। लेकिन क्या करणी सेना के नेता यह भूल गए हैं कि इस हिंसा का बीज उन्होंने ही बोया है।

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